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देश की आजादी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का योगदान

भारद्वाज शुक्ल

देश की आजादी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का योगदानरांची, 21 अगस्त  : देश भर में 15 अगस्त के दिन आजादी की 75वीं वर्षगांठ बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। पूरे देश में आजादी के इस अमृत महोत्सव पर भारत के कई कोनों से खूबसूरत तस्वीर देखने को मिलीं। इसके 2 दिन पहले से शुरु हुई तिरंगा यात्रा ने सबको देशभक्ति के रंग में रंग दिया था। स्वतंत्रता दिवस से पहले लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। हर साल हम भारत की आजादी की तारीख नजदीक आते ही इतिहास के उन पन्नों का जिक्र जरूर करते हैं जिसमें हमारे वीर सपूतों और स्वतंत्रता सेनानियों की कहानी से लेकर उनके संघर्ष की दास्तान होती है। मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई से लेकर भगत सिंह, उधम सिंह, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू से लेकर न जाने कितने असंख्य लोगों ने भारत माता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। लेकिन इसके साथ भारत में एक ऐसा संगठन है जिसकी देशभक्ति पर हमेशा से सवाल उठता आया है, उससे हमेशा से एक सवाल पूछा गया कि आपका देश की आजादी में क्या योगदान था? अब तक तो आप यह समझ ही गए होंगे की हम किसकी बात कर रहे हैं। जी हां हम बात कर रहे हैं राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ की। वही RSS जिससे हमेशा यह पूछा जाता है कि आपने 52 सालों तक नागपुर मुख्यालय में तिरंगा क्यों नहीं फहराया। क्या वाकई में संघ ने देश की आजादी में हिस्सा नहीं लिया था? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका उत्तर हम आपको इस विशेष लेख में देंगे। कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों के सवाल पर RSS ने क्या तर्क दिए हैं। मशहूक पत्रकार और लेखक विजय त्रिवेदी की किताब 'संघम शरणम गच्छामि' के चैप्टर 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे' में इसपर तफ्शील से बताया गया है। आइए जानते हैं-

संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का आजादी में योगदान

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना साल 1925 में हुई थी। इसके संस्थापक थे डॉ. केशव बलराम हेडगेवार। हेडगेवार ने जब इस संस्था की स्थापना की तब भारत आजादी के लिए अपनी लड़ाई लड़ रहा था। संघ के पहले सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार स्वतंत्रता संग्राम में एक नहीं 2-2 बार जेल जा चुके हैं। भारत को पूर्ण आजादी की बात सबसे पहले कांग्रेस अधिवेशन में संघ के संस्थापक ने ही की थी। इतना ही नहीं उन्होंने देश की आजादी में भाग लेने के लिए अपना सरसंघचालक का पद भी छोड़ दिया था। पद छोड़ने का सीधा मतलब था कि स्वयंसेवक संगठन के तौर पर नहीं एक प्रेरणा के तौर पर इस आजादी के आंदोलन में हिस्सा लें। इस तरह से हजारों की संख्या में स्वयंसेवकों ने इसमें हिस्सा लिया और कई को तो बलिदान भी देना पड़ा। विरोधी इस तरक के साथ यह तो मान गए कि चलिए संघ से संस्थापक और पहले सरसंघचालक ने आजादी में हिस्सा लिया होगा लेकिन दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने जरूर लोगों को इसकी इजाजत नहीं दी। लेकिन ऐसे बहुत से मौके हैं जब गोलवलकर ने कहा कि स्वयंसेवक स्वतंत्रता के संग्राम में हिस्सा ले सकते हैं।

'The RSS' किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपध्याय ने लिखा है कि डॉ. हेडगेवार ने आजादी की लड़ाई में भाग भी लिया और जेल भी गए। हालांकि संगठन के तौर पर संघ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल नहीं हुआ। इस पर नीलांजन ने कहा कि उस समय कई ऐसे संगठन थे जिन्होंने सीधे तौर पर आजादी में भाग नहीं लिया। इसका यह मतलब नहीं कि जो शामिल नहीं हुआ वह आजादी की लड़ाई के खिलाफ था। साल 1930 में लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस पार्टी ने पूर्ण स्वराज को स्वीकार कर लिया था। जैसे ही यह खबर संघ के तब के सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार को पता चली उन्होंने सभी शाखाओं को यह संदेश भिजवा दिया कि 1930 को संघ की सभी शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए और स्वतंत्रता के अर्थ को स्पष्ट किया जाए।

' अंग्रेजों का साथ दिया या उनके साथ रहा संघ यह कहना गलत'

संघ पर यह आरोप भी लगता आया है कि उसने भारत की आजादी में भाग न लेकर अंग्रेजों या कहें ब्रितानी हुकूमत का साथ दिया या उनके साथ रहा। इन आरोपों पर 1947-60 तक संघ के प्रचारक रहे देवेंद्र कश्यप ने कहा कि संगठन के रूप में भले आरएसएस ने स्वाधीनता संग्राम में भाग न लिया हो लेकिन यह कहना बिल्कुल गलत है कि संघ ने अंग्रेजों का साथ दिया या अंग्रेजों के साथ रहे। इसका कारण यह है कि RSS के संस्थापक डॉ. हेडगेवार शुरु से अंग्रेजों के खिलाफ थे। भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता किताब लिखने वाले सहगल बताते हैं कि संघ के स्वयंसेवकों ने अलग-अलग संगठनों और दलों की तरफ से आयोजित आंदोलनों और सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। ऐसे में यह कहना कि संघ ने कुछ नहीं किया था तो यह एक मूर्खता है।

सहगल यह भी मानते हैं कि कुछ राजनेताओं ने अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए संघ के स्वयंसेवकों के आजादी की लड़ाई में हिस्से को सिरे से खारिज कर दिया था। लेखक सहगल यह भी मानते हैं कि सबसे ज्यादा अन्याय हेडगेवार के साथ हुआ। जो व्यक्ति आखिरी सांस तक आजादी की लड़ाई के लिए जूझता रहा उसके बारे में न कोई आत्मकथा लिखी गई और न ही उसे अखबारों में छपवाने की कोशिश की गई।

रानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर मना उत्साह तो नाराज हुए संघ के संस्थापक

लेखक नरेंद्र सहगल ने संघ पर और प्रकाश डालते हुए कहा कि साल 1930 से पहले कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का नाम तक नहीं लिया था। सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ही रखा था। सहगल ने बताया कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की लीडरशिप में हुए असहयोग आंदोलन में डॉ. बलराम हेडगेवार ने 6 हजार से ज्यादा स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह किया था। इसके चलते उन्हें 9 महीने की सश्रम कारावास की सजा हुई थी। इससे पहले 22 जून साल 1897 को रानी विक्टोरिया का जन्मदिन धूमधाम से मनाया गया, स्कूलों में मिठाईयां बांटी गई। उस दौरान केशव बलराम हेडगेवार ने यह कहकर मिठाई कूड़ेदान में फेंक दी कि अपने घोंसलों यानि हिंदुओं के राज्य को जीतने वाले राजा मतलब विक्टोरिया के जन्मदिन पर समारोह का जश्न हम क्यों मनाएं? हेडगेवार ने कहा कि मैंने मिठाई के दोने के साथ अंग्रेजी राज्य को भी कूड़े में फेंक दिया। इसके बाग साल 1909 में इंग्लैंड के सम्राट एडवर्ड सप्तम रा राज्यारोहण उत्सव था।
अंग्रेज और उनके समर्थक लोग इस दिन अपने घरों, दुकानों और कारोबारी भवनों पर रोशनी करके आतिशबाजी करते थे। केशव हेडगेवार ने अपने दोस्तों से यह देखते हुए कहा कि विदेशी राजा के राज्यारोहण का उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है। जिस विदेशी राज्य को हमें उखाड़ फेंकना चाहिए उसका उत्सव मनाना धिक्कार की बात है। मैं न जाउंगा और न ही आपको जाने दूंगा।

आधा इतिहास बताने का चल रहा प्रयास- मनमोहन वैद्य

संघ के सह-कार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य कहते हैं कि एक योजनाबद्ध तरीके से आधा इतिहास बताने का प्रयास किया जा रहा है। भारत के लोगों को यह बताने की कोशिश है कि आजादी केवल कांग्रेस और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली है और किसी ने कुछ नहीं किया। जबकि यह पबरी तरह से सच नहीं है। 1921 में जब प्रांतीय कांग्रेस की बैठक हुई तो क्रांतिकारियों की निंदा करने का प्रस्ताव रखा गया। तब डॉ. हेडगेवार ने इसका जबरदस्त विरोध किया। नतीजतन प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। बैठक की अध्यक्षता लोकमान्य अणे ने की थी। हेडगवार ने निंदा क्यों की इसका एक कारण है। वे क्रांतिकारियों को देशभक्त मानते थे। उनका मानना था कि कोई उनके तरीकों से अलग मत रख सकता है लेकिन उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाना अपराध है।

नमक सत्याग्रह में स्वयंसेवकों का योगदान

साल 1930 में महात्मा गांधी के आह्वान पर सविनय अविज्ञा आंदोलन 6 अप्रैल गुजरात के दांडी में नमक सत्याग्रह के नाम से शुरु हुआ था। एक बैठक में नवंबर 1929 को संघचालकों की 3 दिवसीय बैठक में इस आंदोलन को बिना शर्त समर्थन करने का फैसला किया था। वैद्य के मुताबिक, संघ के तबके सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकों के साथ इस सत्याग्रह में भाग लेने का निर्णय लिया। 21 जुलाई को इस सत्याग्रह में उनके साथ पहले 3-4 हजार लोग थे लेकिन देखते ही देखते 10 हजार लोग इकट्ठा हो गए। संघ का कार्य चलता रहे इसलिए उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्व अपने पुराने मित्र डॉ. परांजपे को सौंप दिया और बाबा साहब आप्टे और बापू राव भेदी को शाखाओं के प्रवास की जिम्मेदारी दी थी।

कांग्रेस का एक समूह को था संघ का समर्थन, सरदार पटेल भी थे उनमें शामिल

ऐसा कहा जाता है कि सरदार पटेल सहित कांग्रेस में एक ऐसा समूह भी था जो संघ को लेकर हमदर्दी रखता था। 6 जनवरी 1948 को लखनऊ से अपने भाषण में कहा, ' कांग्रेस के जो नेता इस समय सत्तारूढ़ है वे सोचते हैं कि वे अपनी सत्ता के बल पर संघ को कुचल देंगे। डंडे के बल पर आप किसी संगठन को नहीं दबा सकते। संघ के लोग देशभक्त हैं और वे अपने देश से प्रेम करते हैं। हालांकि गांधी जी की हत्या के बाद विरोधियों को मौका मिल गया और इसी बहाने से संघ के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन बाद में यह समझ आ गया कि RSS पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं है। खुद सरदार पटेल ने गांधी की हत्या पर चल रही जांच पर कहा था कि सभी चीजों को देखते हुए यह चीजें स्पष्ट हो जाती हैं कि स्वयंसेवक संघ का उसमें कोई हाथ नहीं था।

1942 का सत्याग्रह और संघ की भूमिका और महात्मा गांधी की तारीफ 1942 के आंदोलन में संघ की भूमिका पर गुरु गोलवलकर ने कहा था कि देश की स्वतंत्रता के लिए भाग लेने की स्वयंसेवकों की तीव्र इच्छा होना स्वाभाविक है। जिस कांग्रेस ने आंदोलन चलाने का निश्चय किया उन्होंने यह नहीं सोचा कि देश में और भी संस्थाएं हैं जो देश को अंग्रेजों के पाश से मुक्त कराना चाहती हैं। तो भी संघ के स्वयंसेवक पहले की तरह इसल आंदोलन में भी निजी हैसियत से कांग्रेस के नेतृत्व में भाग ले रहे हैं और लेते रहेंगे। साल 1947 सितंबर, यानि आजादी के एक महीने बाद महात्मा गांधी ने गुरु गोलवलकर से मिलने की इच्छा जाहिर की तो गोलवलकर ने तुरंत दिल्ली आकर बिड़ला भवन में गांधी से मुलाका की। गांधी संग संघ के किसी कार्यक्रम में जाकर स्वयंसेवकों को संबोधित ककना चाहते थे। 16 सिंतबर 1947 को बिड़ला भवन के पास भंगी कालोनी के एक मैदान में संघ के 500 से ज्यादा स्वयंसेवकों को संबोधित किया और संघ के काम की तरीफ की थी।

संघ के जानकार कहते हैं कि आजादी की लड़ाई में संघ के सक्रिय आंदोलन को नकारने वाले यह भूल जाते हैं कि RSS ने संगठन के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से बहुत काम किया था। वे यह मानते हैं कि संघ के वैचारिक विरोधियों ने हर संभावित अकादमियों आदि में अपनी पैठ की और संघ के खिलाफ लिखा और आजादी का सेहरा एकमात्र कांग्रेस के सर बांध दिया जो अपूर्ण कथ्य है।


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