: vskjharkhand@gmail.com 9431162589 📠

मुस्लिमों का शोषक : शासन या रुढ़िवादी परम्परा

रांची, 15 जून :  वर्तमान काल की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर देशी और विदेशी मीडिया हाउस के एक धड़े द्वारा पंथनिरपेक्ष भारत की तस्वीर को VSK JHK 15 06 2020मुस्लिम विरोधी सरकार का मुखौटा पहनाने की कोशिश की जा रही है l तीन तलाक, धारा 370 ,राम मंदिर आदि पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दिल्ली दंगा या करोना काल में तबलीगी जमातियों के संदर्भों को पेश करते वक्त ‘कार्ड स्टैकिंग’ का सहारा लेकर ऐसा प्रोपेगेंडा फैलाया जा रहा है जिससे भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को आघात पहुंच रहा है l इसके पीछे की कुटिल- कुत्सित चाल के पीछे मजहबी कट्टरपंथी चेहरा है, जो बार-बार अल्पसंख्यक का लबादा ओढ़कर भारत के सत्तासीन सरकार को कोसते रहते हैं l

भारत में न केवल धार्मिक अपितु जातीय एवं क्षेत्रीय संघर्ष हावी रहे हैं, परंतु बड़े- बड़े मीडिया हाउस इन संघर्षों को एक अलग ही राजनीतिक दृष्टिकोण देने की कोशिश में दिखते हैं l विशेषकर जब से केंद्रीय सत्ता पर भारतीय जनता पार्टी काबिज़ हुई है l 2014 में सत्ता परिवर्तन के साथ- साथ एक अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट का आता है, जिसमें शरीयत अदालत पर तल्ख़ टिप्पणी के साथ ही इसे भारत में अमान्य घोषित किया जाता है l विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश में दो समानांतर अदालतों की उपस्थिति स्वीकार्य नहीं हैl किंतु भारत में दशकों तक इसे सिंचित एवं पोषित किया जाता रहा है l जब इसे संवैधानिक उपचारों द्वारा ठीक किया जाता है तो इसे अल्पसंख्यक के अधिकारों के हनन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगता है l ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिमी ही है कि “राष्ट्र प्रथम या मजहब”?

सती प्रथा, छुआछूत, बाल- विवाह उन्मूलन, जैसी कुरीतियां एक धर्म के द्वारा सामाजिक सुधार के रूप में आत्मसात किए जाते हैं l किंतु जब बात तीन तलाक जैसी सामाजिक कुरीति के उन्मूलन के संदर्भ में होती है तो इसे भी धार्मिक स्वतंत्रता का जामा  पहनाने की कवायद शुरू हो जाती है l

गोधरा, मालदा, मुजफ्फरनगर, मऊ, लखनऊ, भोपाल, अलीगढ़, उत्तर-पूर्वी दिल्ली जैसे शहरों में धार्मिक संघर्ष वाले स्थलों की जनांकिकी पर दृष्टिपात करने पर यह परिलक्षित होता है कि इन स्थानों पर मुस्लिम आबादी, राष्ट्रीय औसत से दुगुनी से तिगुनी तक है l ऐसे में यह सवाल प्रासांगिक हो जाता है कि क्यों उन्हीं शहरों में धार्मिक टकराव की स्थिति बनती है जहां मुस्लिम  अपेक्षाकृत बाहुल्य में है? भारत के हजारों ऐसे शहर हैं जहां मुस्लिमों की संख्या नाम मात्र की है वहां सांप्रदायिक सौहार्द की स्थिति बनी रहती है l हिमाचल प्रदेश, पंजाब, गोवा जैसे राज्यों में धार्मिक फ़साद कम है, वहीं केरल और बंगाल में यह अपने चरम पर दिखता है जहां की आनुपातिक रूप से मुस्लिम जनसंख्या अधिक है l ऐसे में बहुसंख्यक हिंदू द्वारा मुस्लिमों के शोषण की अवधारणा सत्य प्रतीत नहीं होती  है l

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जिस देवबंदी और बरेलवी चरमपंथी का प्रादुर्भाव भारतीय मुस्लिम समाज पर पड़ता है, उस पर यही मीडिया हाउस मौन रहता हैl धार्मिक और सामाजिक फ़तवे पर चुप्पी साधने वाला मीडिया, न्यायालयी फैसलों को भी अल्पसंख्यक के चश्मे से देखने और दिखाने की जुगत करता हैl शाहबानो से इमराना तक के सफर की हजारों दास्तान है जब मुस्लिम महिलाओं पर मुस्लिमों द्वारा ही तुगलकी फरमान जारी किए जाते हैं, ऐसे समय पर मीडिया शरीयत की नुमाइंदगी करता नजर आता है l डेरा सच्चा सौदा या आसाराम बापू के समय मीडिया का जो तबका कानून और संविधान की दुहाई देता है वही मीडिया मौलाना साद, बुहरान वानी या अफजल गुरु के समय अपराध के बजाय धर्म और अल्पसंख्यक का राग अलापता दिखता है l ख़बरों को परोसने की यह दोहरी नीति ही सौहार्द्धा को वैमनस्यता की ओर धकेल देती  है l जिस पर विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा भगवा या हरे रंग का लेप चलाकर राजनीतिक रोटियां सेकने का कार्य किया जाता हैl

शासन के स्वरूप का निर्धारण  सार्वभौम राज्य का केंद्रीकृत विषय है जिसमें राज्यों का सीमांकन भी अंतर्निहित है l प्रशासनिक सुविधा और द्रूत विकास हेतु समय-समय पर नए राज्यों का पुनर्गठन का आधार यही रहा है l झारखंड, उत्तरांचल या छत्तीसगढ़ का पुनर्गठन इसके उदाहरण है l किंतु जब यही प्रशासनिक सुधार भारत के अभिन्न अंग जम्मू- कश्मीर के साथ होता है तो उसे अल्पसंख्यक के अधिकारों के नजरिए से प्रस्तुत कर दिगभ्रमित करने की कोशिश की जाती हैl

मुख्यधारा शिक्षा से दुरी !

कांग्रेसनीत सरकार द्वारा गठित सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में उसी गुजरात के मुस्लिम की स्थिति राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर होती है जिसे मुस्लिमों के सर्वाधिक शोषित राज्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है l कमिटी द्वारा मदरसा शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की सिफारिश करता है एवं इसे उच्च शिक्षा से  जोड़ने की वकालत करता है परंतु तुष्टिकरण की राजनीति के कारण इन निर्देशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता हैl

मुस्लिमों के संदर्भ में यह आरोप बारंबार लगाया जाता है कि यहां नौकरियों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व काफी कम है। उनकी जनसंख्या के आनुपातिक नहीं है। आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं, किंतु यह सिक्के का एक ही पहलू है। इसके पीछे के कारणों को बड़ी ही चतुराई से छुपाने की कोशिश की जाती है। यहां यह उल्लेखनीय है कि, निरक्षरता मुस्लिम समुदाय में सर्वाधिक है, जहां 42 फीसदी से अधिक व्यक्ति अशिक्षित हैं। शिक्षितों में भी अधिकांश माध्यमिक शिक्षा स्तर अथवा मदरसा शिक्षा व्यवस्था के हैं। उच्च एवं उच्चतर शिक्षा में उनका पंजीयन काफी कम है, और केवल 2.75 फ़ीसदी मुस्लिम स्नातक हैं। द हिंदू अखबार के 5 मई 2018 की रिपोर्ट के अनुसार हैदराबाद के मदरसों में 30 से 40% छात्र बिहार और उत्तर प्रदेश के हैं।

यह इस बात की ओर इशारा करते हैं कि मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा के  बजाय रूढ़िवादी, पारंपरिक मदरसा शिक्षा व्यवस्था को ज्यादा तरजीह दी जाती है। ऐसे मदरसों से हिफ़्ज़, आलिम या मुफ़्ती की पढ़ाई करने के पश्चात वे शिक्षित तो होते हैं किंतु प्रतियोगिता की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। समान अवसर की उपलब्धता के बावजूद तकनीकी और आधुनिक शिक्षा पद्धति का अभाव उनके अवसरों को सीमित बनाता है। इसके लिए सरकार या सरकारी नीति को दोष देना कदापि उचित नहीं है। भारत में अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक को शिक्षा का समान अवसर प्राप्त होता है। जम्मू कश्मीर राज्य मुस्लिम बाहुल्य राज है बावजूद इसके वहां की मुस्लिमों की साक्षरता लगभग 47% और अल्पसंख्यक हिंदू की साक्षरता 71% शिक्षा के समान अवसर की ही संपुष्टि करता है।

भारत का संविधान और उसके उपबंध जाति, लिंग या धर्म से विभेद किए बिना निर्बाध रूप से नागरिक के मानव अधिकारों को अक्षुण रखता हैl भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति और अधिकार, मुस्लिम जनसंख्या बहुल मुस्लिम सहयोग संगठन के अधिकांश देशों (Organisation of Islamic Cooperation, OIC, 57 countries) से बेहतर हैl संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के मानव विकास सूचकांक से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है की जहां एक और अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य देश मुस्लिम स्त्रियों और पुरुषों के मध्य अधिकारों और अवसर में भेद करता है, वही भारतीय संविधान में समान नागरिक अवसर मुहैया कराता हैl वास्तविकता में मुस्लिमों के शोषण की कथा शरिया कानून की गलत व्याख्या की उपज है जो उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़ने से रोकती है और उनके विकास को बाधित करती है l

आलोक कुमार

स्वतंत्र पत्रकार


Kindly visit for latest news 
: vskjharkhand@gmail.com 9431162589 📠 0651-2480502