संकटग्रस्त समय में संघ का सामूहिक भाव : संजय कुमार आज़ाद
रांची , 27 अप्रैल : विश्व में भारत ही अपना एक ऐसा देश है जो अब भी इस बात के लिए सचेत है कि सृष्टि में भौतिक पदार्थों के अतिरिक्त कोई और भी शक्ति है, वह है,अपना वेद नि:सर्ग अध्यात्म रूपी आत्मबल.वेद विश्व का आदि ज्ञानकोष तथा भारतीयों की प्रतिष्ठा का मानदण्ड रहा है । आज वेदों से मिले इसी आत्मबल के कारण सीमित साधनों के बलबूते असीमित चीन प्रायोजित वैश्विक महामारी को हमसब मात दे रहे हैं। इस चीनी वाइरस का सामना कर रहे अपने स्वास्थ्यकर्मी, सुरक्षाकर्मी, सफाईकर्मी इसी आत्मबल के सहारे सेवा में जी जान से जुटें है।
आपदा के इस घड़ी में संघ संस्कारों से दीक्षित स्वयंसेवकों ने सेवा का जो स्वत:स्फूर्त दाईत्व अपने कंधों पर लिया वह मन को आह्लादित करता है। शहरी झुग्गी झोपड़ियों से लेकर गिरी कन्दरायों तक हर अभावग्रस्त परिवारों के बीच ये स्वयसेवक बगैर किसी भेदभाव,लोभ-लालच के उनके जरूरतों के अनुसार सेवा के लिए तत्पर है। मास्क,साबुन,सेनेताईजर,सुखा राशन,पका राशन,दवा,और अन्य आवश्यकता जिसने जैसी जरुरत बताई नि:शुल्क लेकर संघ के स्वयंसेवक उस परिवार के यहाँ उपस्थित हो जाते है, कितनी आत्मीयता, कितना प्रेम से आपदा की इस घड़ी में वे कार्य कर रहे है। लोगो में शारीरिक दुरी, स्वास्थ्य, सफाई की जागरूकता के साथ-साथ इस विषम परिस्थिति में ‘हमसब एक है’ का भाव भी भर रहे है। ऐसे चीन प्रायोजित आपदा में हम सब घरों में रहकर शाशन के आदेश का पालन कर ही रहे है।
अपने स्वयसेवकों में उत्साह बना रहे तथा सावधानियो को अपनाए इस निमित्त अपने ऑनलाइन बौद्धिक वर्ग में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन मधुकर भागवत ने कहा कि-“देश की 130 करोड़ आबादी में सभी भारत के लोग भारत माता के पुत्र हैं। हमारे भाई-बंधु हैं । इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए। हम मनुष्य में भेद नहीं करते हैं। हमारी कोशिश है कि जरूरतमंदों तक मदद पहुंचे”। उनका यह उदात विचार हिंदुत्व की महान सोच ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को और भी समीचीनता प्रदान करती है।
जो लोग संघ के बारे में मनगढंत धारणाओं से ग्रसित है,जिन्हें लगता,संघ उस राष्ट्र की कल्पना को साकार करने में लगा है । जहाँ मुस्लिम या इसाइयत की कोई जगह नही है उनके लिए सरसंघचालक जी यह उद्वोधन इसलिए कष्टकर लगा होगा कि वर्षों से जिस इंद्रजाल के सहारे भारत में मुसलमानों और इसाइओ को इसी संघ से डराकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास किया अब उसका क्या होगा? जिस संघ को उच्च वर्णों का समूह कहकर आम लोगो को इससे दूर करने का घृणित खेल करने का कुचक्र चला रहा था, महामारी के इस भीषण आपदा में हर विषम परिस्थियो में समाज का कोई व्यक्ति अगर खड़ा मिल रहा, सेवा के निस्वार्थ कसौटी पर कोई खरा उत्तर रहा, तो वह संघ संस्कारों से दीक्षित स्वयसेवक ही है।
ये स्वयसेवक जब सेवा के लिए निकलते है तब उनके नज़र में कोई मुसलमान,इसाई, दलित,अछूत या घुमन्तु नही होता बल्कि देश की 130 करोड़ आबादी का अपना परिवार होता है। जिसका सुख दुःख संघ अपना सुख दुःख मानता है । चीन प्रायोजित इस महामारी में संघ के स्वयसेवक सिर्फ भारत में ही नही बल्कि विश्व में ये संघ संस्कारों से दीक्षित स्वयसेवक जहाँ-जहाँ जिस-जिस देश में है, आपदा की इस घड़ी में उस राष्ट्र के लिए अपनी सेवा देकर हिंदुत्व दर्शन को साकार करने में सबसे आगे है । संघ की उत्कृष्टता सदा उसकी सामूहिकता में रही है । यही सामूहिकता उसे परिवार से जोडती है और उसी परिवार की संकल्पना स्वयंसेवको में सेवा का भाव सृजित करता है।
जब पूज्य सरसंघचालक जी आह्वान करते है कि-“अगर कोई डर से या क्रोध से कुछ उलटा-सीधा कर देता है तो सारे समूह को उसमें लपेटकर उससे दूरी बनाना ठीक नहीं है। अपने-अपने समाज के प्रमुखों को अपने लोगों को यह समझाना चाहिए। किसी भी तरफ से कोई डर या गुस्सा रंचमात्र भी नहीं होना चाहिए। प्रेम और अपनेपन के साथ काम करना होगा। इस संकट के वक्त में ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है।” तो देश में वामपंथी व पाश्चात्य विचारों में जीने वाले चीनी समूहों में भी वेचैनी छा गयी, भारत तेरे टुकड़े होंगे ऐसा सीख देने वाले जमातों में मायूसी छा गयी। भारतीय लाशों पर राजनीती करने वाले गिध्दों की जमात और हिंदुत्व चिन्तन पर खार खाए उल्लुओं का समूह पूज्य सरसंघचालक जी के उद्वोधन से हताश और निराश हो गये। संघ हमेशा इसी धारणा में जीता है जिसे महाकवि प्रसाद ने कहा है-
किसी का हमने छीना नहीं प्रकृति का रहा पालना यही । हमारी जन्मभूमि थी यहाँ कहीं से हम आये थे नही ।
जियें तो सदा इसी के लिए यही अभियान रहे यह हर्ष । निछावर कर दें यह सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष ।
संघ जिस हिंदुत्व की बात करता है, वह हिंदुत्व है, वह ना तो उग्र होता है ना नरम, न हिंसक होता न अहिंसक अपने शब्दों के जाल में भारत की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले सदा हिंदुत्व की जो व्याख्या करते,उससे संघ का कोई वास्ता भी नही रहा है । संघ लाखों वर्ष पूर्व से चली आ रही उस सनातन परम्परा, जिसे वर्तमान में हिंदुत्व कहते है, वह हमारे पूर्वजों के अनुभवों के आधार पर दिया गया है। संघ उसी हिंदुत्व में अटूट विश्वास रखता है । जिसका मूल “अहं ब्रहमास्मी” (बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० यजुर्वेद) अर्थात जब ब्रहम और जीव दोनों के मध्य एकता का बोध हो जाता है, फिर संघ के लिए किसी भी निकाय को अलग से देखने की दृष्टि का सृजन ही सम्भव नही है । उसी सनातन पम्परा में परोपकार से बढ़कर कोई पुन्य नही, और सेवा ही मोक्ष का अंतिम सोपान है, नर ही नारायण है, ऐसे में इस संकट कल में नर की सेवा ही नारायण की सेवा है।
पूज्य गाँधी जी के सपनो का भारत में स्वदेशी सर्वोपरी रहा है, इस विषय पर संघ से इत्तर विचार रखनेवाले ज़मात समाज में हमेशा पूज्य गांधीजी और संघ के बीच एक दीवार खड़ा करने का कुचक्र चलाता रहा है। भले हीं समाज उनके इस दीवार को हमेशा तोडा फिर भी ये जमात बाज नही आते। वैसे में पूज्य सरसंघचालक जी का लोगों को स्वदेशी की तरफ आगे आने का आह्वान पूज्य गांधीजी के सपनों को साकार करता है। उनका आह्वान कि –“अगर स्वदेशी वस्तुओँ से काम चल जाता है तो उसे अपनाएं। विदेशी वस्तुओँ का कम से कम प्रयोग करें। क्वालिटी वाले स्वदेशी उत्पादक बनाने पर हमें जोर देना है। हम सभी को स्वदेशी आचरण को अपनाना होगा। स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन गुणवत्ता में बिल्कुल उन्नीस ना हो। कारीगर, उत्पादक सभी को यह सोचना होगा । समाज और देश को स्वदेशी को अपनाना होगा”.संघ सदा स्वदेशी के प्रति आग्रही रहा है,स्वदेशी के नाते अपने लाखो परिवारों के लिए रोजी रोटी का अवसर भी पैदा होगा। इस दिशा में लाखों स्वयंसेवक भी कार्यशील है। चीनी आपदा के इस घड़ी में यही स्वदेशी हमारी स्थिरता का कारण है। अपने दैनिक जीवन में स्वदेशी का प्रयोग के साथ साथ अपनी परम्पराओं के प्रति जागरूकता, हमे इस महामारी से लड़ने में सहायता प्रदान करती है।
सभी लोगों को घर में रहकर ही इस महामारी रूपी जंग को जीतनी है। इस समय हम अपने परिवार में, अपने महापुरुषों के बारे, अपनी महान संस्कृति-परम्पराओं, खानपान के बारे, पर्यावरण, संस्कृत सीखने,कुछ रचनात्मक करने,साहित्य पढने आदि के बारे में नित्य चर्चा करें.सामजिक दुरी अपने संस्कार और संस्कृति को जानने का एक अवसर है ऐसा मानकर इसे आत्मसात करें.संकटग्रस्त इस समय में अपने सामूहिकता का प्रत्यक्ष परित्याग करे शारीरिक दुरी कायम रखते हुए संचार के विभिन्न माध्यमो से उनके बीच सदा उपस्थित रहें.परिवार का यह सामूहिक भाव इस विषम परिस्थिति में प्रत्यक्ष न होकर वर्चुयल रहे ऐसा अपना प्रयास रहे।
कविगुरु रवीन्द्रनाथ कहते है : “मै भारत से प्रेम इसलिए नहीं करता कि मै किसी भौगोलिक भूखंड की अंधभक्ति को माननेवाला हूँ, न ही केवल इसलिए कि मुझे भारत में जन्म पाने का अवसर मिल गया,अपितु इसलिए कि पिछले अनेक उथल-पुथल वाले युगों में से होते हुए भी भारत ने उस जीवंत वाणी को सुरक्षित रखा है जो उसके महान पुत्रों के मुख से नि:सृत हुई : सत्यं, ज्ञानं, अनन्तं ब्रह्म”। इस दृष्टि को ध्यान रखते हुए हिंदुत्व भाव से भरे संकटग्रस्त इस समय में अपनी जो सामूहिक भाव है वह और भी पुष्ट होकर समाज में दिखे ताकि इस विषम काल में भी अपने राष्ट्र को अपने आचार विचार व्यबहार से और सुदृढ़ कर विश्व के लिए आदर्श बने।