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वैचारिक कुम्भ हम सब को एकात्मता की ओर ले जाने वाला सिद्ध होगा : भय्याजी जोशी
प्रयागराज , 1 फ़रवरी 2019 : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह भय्या जी जोशी ने कहा कि भारत की विशिष्ट पहचान एवं हिन्दू समाज की जीवन दृष्टि, विभिन्न विचार मत, पंथ, सम्प्रदाय एवं साधना पद्धतियों का ध्येय व सत्य एक है उसे प्राप्त करने के मार्ग अनेक हैं।
सभी सम्प्रदायों का उद्देश्य नर को नारायण बनाना है। संयमित उपभोग, मर्यादाओं का पालन ही संस्कार है। भारतीय संस्कृति सिद्धान्त नहीं आचरण है और विश्व कल्याण की कामना इसी संस्कृति में है।  पर्यावरण, प्रकृति हमारे जीवन का आधार है।  समाज को सन्मार्ग पर चलने का आशीर्वाद इन्हीं पूज्य संतों द्वारा समय पर मिलता है।  सरकार्यवाह 30 जनवरी को प्रयागराज में आयोजित सर्वसमावेशी सांस्कृतिक कुंभ में संबोधित कर रहे थे। 
भारत की अपनी एक विशेषता है।  भिन्न भिन्न प्रकार के संप्रदाय हुए, भिन्न भिन्न प्रकार की पूजा पद्धतियों को यहां पर लोगों ने देखा है। साधना की पद्धतियां भिन्न-भिन्न हैं। हम सारी भिन्नताओं, विविधताओं में एकात्मता का दर्शन करने का चिंतन करते आए हैं और ऐसा ही सब प्रकार की पद्धतियों में कुछ एकात्मता के सूत्र हैं, ये सूत्र सारे समाज को जोड़ने वाले हैं। कई प्रकार की विरोधी शक्तियों ने इन भेदों को समाज में विघटन करने का आधार बनाया, कुछ मात्रा में सफल हुए।  परंतु आज का ये वैचारिक कुम्भ हम सब को उस एकात्मता की ओर ले जाने वाला सिद्ध होगा।  अनेक वर्षों से अनेक महापुरुषों के प्रयत्न इसी दिशा में रहे हैं। 
भारत के मूल चिंतन में शरीर को भी साधन माना गया है और यहाँ पर हम एक वचन दोहराते आए हैं – शरीरमाध्यम् खलु धर्म साधनं, यह धर्म का साधन है।हमने शरीर को इतना महत्व नहीं दिया है और भारत के मनीषियों ने कहा कि शरीर तो अविनाशी नहीं विनाशी है, परन्तु आत्मा अविनाशी है वो कभी नष्ट नहीं होती। उसे अग्नि समाप्त नहीं कर सकती, यह चिरन्तन है । शरीर बदलता रहेगा, नए नए जीवन प्राप्त होते रहेंगे और इस प्रकार जीवन की यात्रा चलती रहेगी। अंत में जाकर कभी मोक्ष की प्राप्ति होगी।  और जब शरीर को अविनाशी मान लिया तो शरीर के संबंध में जितने भी मोह के विषय बनते हैं वो धीरे-धीरे क्षीण होते जाते है, दुर्बल होते जाते हैं और शरीर से ऊपर कुछ है, ऐसा विचार सामान्य व्यक्ति यहां पर करना प्रारंभ करता है।  शरीर तो आज है कल समाप्त होने वाला है, मैं रहने वाला हूँ। 
हमारे यहाँ पर मान्यता है, केवल मान्यता नहीं हम सबका अनुभव है कि जैसे किसी एक मनुष्य के विकास की बात कही गयी तो हमारे सारे चिंतकों ने किसी भी पंथ सम्प्रदाय के हों, शाक्त संप्रदाय के हों, जैन, बौद्ध हों, सिक्ख संप्रदाय के हों। विभिन्न प्रकार की विचारधारा रखने वालों ने इस बात को कहा कि प्रकृति के द्वारा कोई शरीर प्राप्त होता है, अगर वो विकास की दिशा में चलना प्रारंभ करे तो वो देवता के रूप में विलीन हो जाता है, देवदूत हो जाता है।  तो यहाँ पर मनुष्य के विकास की अवधारणा के समय नर से नारायण की यात्रा होती है, ये विचार यहाँ पर रखा गया । सारे संप्रदाय ने यही बात कही है । पर नर से नारायण बनना है, ये हम सब प्रकार के व्यक्तिगत जीवन में मोह, आने वाले दोष, उन दोषों से मुक्त रखने का मार्ग प्रशस्त करता है।  व्यक्ति के अंतःकरण में इस बीज का बीजारोपण होता है कि मैं भी नारायण बन सकता हूँ।  सब प्रकार के संप्रदाय इसी का ही मार्गदर्शन करते आए हैं।  जीवन की ओर देखने की भारत के मनीषियों ने दृष्टी हम सबको दी है, वो त्याग की है।  मनुष्य त्याग की ओर जाए, एक संयमित उपभोग करे । इस उपभोग को करते समय सब प्रकार की मर्यादाओं का पालन करे, हमारे यहाँ पर यह नहीं कहा कि हम गरीब रहें, दरिद्र रहें
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम, यही सभी ग्रंथों का संदेश है, सभी ग्रंथों का सार है।  और इसीलिए ऐसी भिन्न-भिन्न प्रकार की अनुभव में आने वाली पद्धितियां, थोड़े अलग-अलग प्रकार के रखे हुए विचार, अलग-अलग प्रकार के महापुरूषों ने अपने चिंतन के आधार पर अनुयायी वर्ग निर्माण किया होगा।  पर, अगर इन सब को जोड़ने वाला अगर एक शब्द है तो हम सब जानते है इन सब को जोड़ने वाला एक ही शब्द और वो हिन्दू है।  यह हिन्दू शब्द ही इस एकात्मता का दर्शन कराता है।  इस कुम्भ का आयोजन करते समय इसका एक घोष वाक्य बताया गया है।  एकं सत् विप्राः बहुधा वदंति, यह इसका सूत्र है।  सत्य एक है, उस सत्य की ओर पहुँचने के मार्ग भिन्न भिन्न हो सकते हैं । सत्य के संदर्भ में यहाँ पर कोई भिन्न प्रकार का विचार नहीं है।  इस सारे वैचारिक कुम्भ में यहाँ दिनभर में जो विचार चलेगा, वो सत्य की ओर जाने के मार्गों का विचार न करते हुए, वह सत्य क्या है उसे समझने का, स्मरण करने का काम आज के इस वैचारिक कुम्भ में होने जा रहा है। 
मैं केवल संक्षेप में वो सत्य क्या है वो मूलभूत चिंतन क्या है, उसको बहुत ही सूत्र रूप में आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं।  वास्तव में मंच पर इतने श्रेष्ठ महात्मा संत बैठे हुए हैं, उनकी वाणी से हम लाभांवित होने चाहिये।  मैं केवल इस चर्चा का सूत्र मात्र, इस नाते ही आपके सामने खड़ा हूँ।  हमारी मान्यता है – यह सब चराचर सृष्टि एक है, उसमें एक ही चैतन्य है. किसी प्रकार का कोई चर-अचर, किसी प्रकार का भेद यहाँ पर नहीं, एक ही चैतन्य है।  उसी को हम ईश्वर मानते हैं और सारे इस ब्रह्मांड में ईश्वर के अस्तित्व का हम अनुभव करते हैं जो प्राण शक्ति है, जो चेतना, उस शक्ति का प्रतीक है और इसीलिए अपने यहाँ पर कहा गया – ईशावास्यमिदं सर्वं, हमारे आस पास, चर अचर, जड़ चेतन, सब में उस ईश्वरीय शक्ति का स्थान है। 
सत्य क्या है, सत्य यही है और यह समन्वय का मार्ग है।  कभी विश्व में चितन चला, कुछ लोगों ने कहा कि जिसके पास अर्थ बल है वह विश्व में साम्राज्य स्थापित करेगा।  तो दुनिया के देश अधिकाधिक संपदा प्राप्त करने की होड़ में लग गए।  एक समूह ने कहा कि जिसके पास संख्या बल ज्यादा है, वह विश्व पर साम्राज्य स्थापित करेगा।  तो दुनिया के अलग अलग देश अपनी संख्या बढ़ाने में लग गए।  परन्तु तीसरा एक विचार विश्व के सामने रखा गया कि विश्व पर किसका प्रभाव होगा तो उसी का प्रभुत्व होगा आने वाले समय में जो समन्वय का विचार रखता है, सबको साथ में लेकर चलने का विचार रखता है, सबको अपने अपने मार्ग से जाने का स्वातंत्र देता है।  मैं समझता हूं कि यहां के मनीषियों ने रखा चिंतन भविष्य के सारे संघर्ष को समाप्त करने वाला सिद्ध होगा। 

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