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- Written by S.K. Azad , Edited by Bharat Bhushan
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विनायक दामोदर सावरकरः एक राष्ट्र-एक जीवन
रांची, 15 दिसम्बर : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में विनायक दामोदर सावरकर को देश भक्त क्रांतिकारियों के मुकुटमणि माना जाता है। इनका जन्म 28 मई, 1893 को नासिक जिलान्तर्गत भांगूर ग्राम में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ । इनके पिता दामोदर पंत सावरकर एवं माता राधाबाई के तीन बेटों एवं एक बेटी कुल चार संतानों में से एक सावरकर थे ।
सावरकर की प्रारंभिक शिक्षा गॉव में हुई और बी0ए0 इन्होने नासिक से उत्तीर्ण किया । विनायक दामोदर सावरकर आजीवन लोकमान्य गंगाधार तिलक से प्रभावित रहे । नासिक में विद्याध्यन के समय लोकमान्य तिलक के लेखों व अंग्रेजों के अत्याचारों के समाचारों ने छात्र सावरकर के हृदय में विद्रोह के अंकूर उत्पन्न कर दिये । अपनी कुलदेवी अष्टभुजी माता दुर्गा की प्रतिमा के सम्मुख उन्होने प्रतिज्ञा ली- ‘देश की स्वाधीनता के लिए अंतिम क्षणों तक सशस्त्र क्रॉंति का झण्डा लेकर जुझता रहूॅंगा।’
07 अक्टूबर, 1905 की तिथि सावरकर के आरंभिक राजनैतिक जीवन में मील का पत्थर साबित हुआ । लोकमान्य तिलक की अध्यक्षता में पूना में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह में सबसे पहला भारतीय युवा सावरकर ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार का शुभारम्भ किया। परिणामस्वरूप वे किसी सरकारी मान्यताप्राप्त कॉलेज से निष्कासित किये जाने वाले प्रथम भारतीय बन गए । उसके बाद उच्चाध्यान के लिए वे लंदन के लिए प्रस्थान कर गये।
साम्राज्यवादी अंग्रेज़ो के गढ़ लंदन में जाने से पूर्व 1899 में भारतीय स्वतंत्रता को समर्पित गोपनीय संगठन ‘मित्र मेला’ या फ्रेन्ड्स यूनियन जो 1904 में अभिनव भारत के नाम से जाना गया । इस संगठन बनाने की प्रेरणा उन्होने इटली के मैजिनी तथा रूस के गुप्त संगठनों से प्राप्त किया था । लोकमान्य तिलक के सिफारिश पर सावरकर को लंदन में पढ़ाई के लिए पंडित श्यामा जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति के लिए चुन लिया गया। छात्रवृत्ति के आवेदन में आवेदक को अपने जीवन के लक्ष्यों के विषय में कुछ पंक्तियॉ लिखनी थी । सावरकर ने लिखा- मेरी नजर में स्वाधीनता और स्वतंत्रता किसी भी राष्ट्र की जान होती है। श्रीमान् जी बचपन से लेकर युवावस्था के इस क्षण तक मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य, जिसका मैंने रात-दिन सपना देखा है, वह है अपने देश की खोई हुई स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करना।
लंदन पहुॅचने पर सावरकर ने ‘फ्री इंडिया सोसाईटी’ नामक संस्था का गठन किया । उस समय ब्रिटेन में एक परम्परा प्रचलित थी, जिसके तहत हर वर्ष 01 मई के दिन 1857 के विद्रोह में ब्रिटेन की मिली जीत के रूप में समारोह किया जाता था। इसके प्रत्युत्तर में सावरकर ने 1857 के नायकों और शहीदों को याद करते हुए 10 मई, 1907 के दिन इस महान विद्रोह की 50वीं वर्षगांठ मनाने का फैसला किया, जिसमें भारतीय विद्यार्थियों तथा अन्य भारतीयों ने भाग लिया। सभी ने अपने सीने पर काला बिल्ला लगाए और उपवास किया ।
सावरकर ने 24 वर्ष की आयु में ही 1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक पुस्तक मराठी में लिखी, जिसे छपने से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया। इस पुस्तक के माध्यम से सावरकर ने पहली बार लोगों का ध्यान झांसी की रानी, मंगल पांडे, तॉंत्या टोपे जैसे क्रांतिकारियों के नामों की तरफ दिलवाया। हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के संदर्भ में कुछ रोचक उदाहरणों को प्र्रस्तुत करते हुए सावरकर ने लिखा- हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कड़वाहट को अतीत में दफन कर देना चाहिए। उनका वर्तमान संबंध शासक और प्रजा तथा विदेशी और मूल निवासी का न होकर केवल भाई-भाई का है, जिसमें केवल धर्म का अंतर है। वे दोनों हिन्दुस्तान की मिट्टी की संतान हैं। उनके केवल नाम ही भिन्न हैं, किन्तु वे सब एक ही मॉं की संतान हैं, क्योंकि भारत दोनों की ही माता है, इसलिए वे सगे भाईयों की तरह थे। इसी पुस्तक में वे लिखते है कि ‘सही मायने में बहादुरशाह जफर को भारत को भारत की गद्दी पर बैठाना कोई पुनः बहाली करना नहीं था, बल्कि यह इस बात की स्पष्ट धोषणा थी कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच लंबे समय से चल रहा युद्ध समाप्त हो चुका था, तानाशाही का अंत हो गया था और इस देश की मिट्टी के लोग अपना शासक चुनने के लिए एक बार फिर स्वतंत्र थे।
सावरकर से प्रभावित होकर मदन लाल ढींगरा ने सर कर्जन वायली, सक्रेटरी ऑफ स्टेट, इंडिया के सहायक की हत्या करके प्रतिशोध लिया। ढींगरा ने हत्या के समय कहा कि ‘स्वतंत्रता का युद्ध तबतक जारी रहेगा, जब तक अंॅग्रेज और हिन्दू नस्लें रहेगी।’ कर्जन वायली की हत्या के लिये मदनलाल ढींगरा को पिस्तौल सावरकर ने ही उपलब्ध करायी थी।
गॉधी और सावरकर के बीच वैचारिक मतभेद जीवनपर्यतं तक रहे। बावजूद भारत की स्वतंत्रता के बिन्दू पर उनमें मतैक्य था। गॉंधी जी को 1909 में लंदन में आयोजित दशहरा उत्सव को सम्बोधित करने के लिये बुलाया गया था । मंच पर सावरकर भी मौजूद थे। गॉंधी ने अपने वक्तव्य में कहा कि उन्हें सावरकर के साथ बैठने और मंच साझा करने पर विशेष गर्व की अनुभूति हो रही है।
अभिनव भारत व फ्री इंडिया सोसाईटी का अभियान जोरों पर था। 13 नवम्बर, 1909 को अहमदबाद में वायसराय लार्ड मिन्टों पर जानलेवा हमला मोहनलाल पाड्या द्वारा किया गया । 21 दिसम्बर, 1909 को अनन्त कान्हेर ने नासिक के कलेक्टर ए0एम0टी0 जैक्सन को गोली मार दी । अॅग्रेजी सरकार ने जैक्सन हत्याकाण्ड के दौरान अभिनव भारत की संलिप्तता को सिद्ध कर दी। सावरकर को लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर को जंजीरों में बॉधकर जहाज द्वारा भारत लाया जा रहा था। सावरकर फ्रांस के मार्सेल्स बन्दरगाह के निकट समुद्र में कूद पड़े। अंग्रेजी फौज ने सावरकर को समुद्र में कुदते ही गोलियॉ बरसानी शुरू कर दी। सावरकर गोलियों के बौछार से बचते-बचाते सुदूर फ्रॉस के तट पर जा पहुॅंचे । अभिनव भारत की योजना थी कि वहॉं से उनके दो साथी मैडम कामा और अय्यर द्वारा सावरकर को ले लिया जायेगा। परन्तु दुर्भाग्यवश उन दोनों को पहुॅचने में विलंब हो गयी। सावरकर पुनः अग्रेजी सैनिकों द्वारा पकड़ लिये गये। दिनांक 22 जुलाई, 1910 को भारत लाकर सावरकर के उपर मुकदमा चला । दिनांक 23 दिसम्बर, 1910 को सावरकर को आजीवन निर्वासन के साथ-साथ उनकी सारी सम्पति जब्त कर लिये जाने की सजा सुनाई गई । कुछ अन्य आरोपों के सिलसिले में जिसमें यह आरोप भी शामिल था कि सावरकर ने ही वह पिस्तौल कान्हेरे तक पहुॅचाई थी, जिससे जैकसन का कत्ल हुआ था । सावरकर को 30 जनवरी, 1911 को दूसरी बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। पर, यह आरोप अंत तक साबित नहीं हो सका था।
एक बार सजा तय हो जाने के बाद सावरकर ने अपना सबसे अधिक मनपसंद काम लेखन, फिर से शुरू कर दिया । सजा होने के बाद उनकी सबसे पहली रचना एक कविता थी, जिसे उन्होने सिखों के दसवें गुरू गोविन्द सिंह जी के जीवन, बलिदान और साहस के प्रति समर्पित किया था ।
‘द ट्रिब्यून’ ने पूरे मुकदमें की विस्तार से पड़ताल की और सावरकर के भारत में कदम रखने के दिन से लेकर अंडमान में निर्वासन तक की पूरी घटनाओं पर अनेक सम्पादकीय लिखे। इसने सजा को लेकर बयान दिया दी गई कि ‘सजाएॅ दुखद रूप से अत्यंत कठोर हैं। कुछ दिनों के बाद दूसरी बार आजीवन निर्वासन की सजा पर बयान देते हुए कहा- ‘अदालत उनकी किसी प्रत्यक्ष भूमिका को साबित करने में असमर्थ रही, यहॉ तक कि यह भी साबित नहीं कर पाई कि उन्हांने रिवाल्वर मुहैया करवाया था। स्पष्टतः ब्रिटिश सरकार द्वारा सावरकर को दी गई सजा में उनके शासन के विरूद्ध एक हिंसक विद्रोह की संभावना नजर आ रही थी। डोंगरी जेल से सावरकर को पहले वाईकुला फिर थाणे जेल और मद्रास के रास्ते अंडमान के सेल्यूलर जेल तक की यात्र में हजारों लोग उनकी एक झलक पाने के लिए स्टेशन पर इकट्ठे हो गए थे। 27जून, 1911 को सावरकर को जंजीरों में जकड़कर एस0एस0 महाराजा नामक जहाज से पार्ट ब्लेयर ले जाया गया।
सावरकर की कालजयी रचना माई टां्रसपोर्टेशन फॉर लाईफ में अंडमान की सेल्यूलर जेल की कठोर यातना को लिखा जो 1927 में एक पुस्तक के रूप में छपी। सेल्यूलर जेल में भी अंग्रेजों के फुट डालो-राज करो की नीति का खुलासा सावरकर ने अपनी पुस्तक में किया है कि किस प्रकार हिन्दू कैदियों के मन में डर बैठाने के लिए जेल के अधिकारियों द्वारा विशेष रूप से मुस्लिम वार्डनों को रखा जाता था । वे लिखते है कि अनेक प्रकार के कुचक्र तथा डरा-धमकाकर धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जाता था- ‘चौदह साल की जेल के अनुभव से मैं यह बात किसी डर और पक्षपात के बिना दावे के साथ कह सकता हूॅ कि इस कारावास रूपी मस्जिद में एक साल में जितने हिन्दुओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित किया जाता है, उतने तो शायद दिल्ली या बॉम्बे की जामा मस्जिद में भी नहीं किए जाते।
सावरकर अंडमान में प्रवास के दौरान दो क्रांॅतिकारी कार्य किये । प्रथम कैदियों के बीच अंतरजातीय भोजन का आयोजन और कैदी विशेषकर नौजवान कैदियों को शिक्षित करने संबंधी कार्य। अंडमान जेल में सावरकर जैसे कैदियों को साल में दो पत्र लिखने और प्राप्त करने की अनुमति थी । सावरकर समझते थे कि ये पत्र न केवल अपने परिवार के साथ विचारों को साझा करने, बल्कि अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी लिखने के अच्छे अवसर थे । एक सच्चे राष्ट्रवादी के रूप में सावरकर के राष्ट्रीय मुद्दों पर गहरी समझ का परिचायक है।
पार्ट ब्लेयर से 02 मई, 1921 को सावरकर को रिहाई का आदेश दिया गया। वे वहॉ से रत्नागिरि जेल भेज दिये गये । सावरकर ने अपनी सर्वप्रमुख पुस्तक ‘हिन्दुत्व’ यहीं पर लिखी । जिसमें उन्होने हिन्दुत्व को परिभाषित इस प्रकार से किया- ‘आ सिन्धू-सिन्धू पर्यन्ता यस्य भारत भूमिकाः। पितृभूः पुण्यभूष्चैव सवै हिन्दू रितिस्मृतः।। अर्थात हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त फैले सम्पूर्ण भारत भूमि को जो अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है, वह सभी हिन्दू है।’ सावरकर की जेल यात्रा जारी रही ।
10मई, 1937 को उन्हें वास्तविक रूप से स्वतंत्र किया गया। इस प्रकार सावरकर 27 वर्षो से भी अधिक समय तक राजनैतिक बंदी के रूप में रहे। 1942 में हिन्दू महासभा का 24वॉ अधिवेशन में सावरकर ने कहा- हम स्वराज चाहते हैं, पर उस स्वराज का मतलब ऐसा हिन्दुस्तानी स्वराज होना चाहिए, जिसमें हिन्दुओं, मुसलमानों और बाकी सभी नागरिकों की समान जिम्मेदारियॉ, समान कर्त्तव्य और समान अधिकार हो। ऐसा स्वराज कदापि सहन नहीं करेगें कि कोई विशेष समुदाय धर्म के आधार पर अपने आप को केन्द्रीय सरकार से अलग करे।
महात्मा गॉंधी से सावरकर का पूरे जीवन काल में दो बार मुलाकात हुई । प्रथम लंदन में, जिसका उल्लेख उपर किया जा चुका है और दुसरी बार 18 साल के बाद रत्नागिरि जेल में । मार्च, 1927 को गॉधी जी, कस्तूरबा के साथ सावरकर से मिले। यह एक सद्भावना मुलाकात थी। गॉधी जी ने सावरकर के साथ अपने मुलाकात पर यह टिप्पणी की- हमारा लक्ष्य आखिरकार एक है, हम दोनों ही हिन्दुवाद और हिंन्दुस्तान की शान के लिए संघर्षरत हैं।’16 हालांकि यह उन दोनों की अंतिम मुलाकात साबित हुई। दुर्भाग्य है कि गॉंधी जी की हत्या में सावरकर का नाम जोड़ा गया, जिसमें वे अदालत द्वारा निरपराध घोषित किये गये। सावरकर के वकील भोपतकर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अदालत में चल रहे मामलों में कानूनी सहायता उन्हें डॉ0 अम्बेदकर से मिली।
1962 में भारत पर चीन के हमले से सावरकर को गहरा धक्का लगा था। डॉ0 अम्बेदकर की भांति ही सावरकर उन लोगों में थे जो काफी समय से इस दुर्घटना की भविष्यवाणी कर रहे थे। चीनी हमले की खबर मिलने पर वे एक घंटे तक रोते रहे।
26 फरवरी, 1966 को सुबह 11 बजे सावरकर का निधन हो गया। सावरकर ने संभवतः 1964 में अपनी वसीयत लिखी थी। उनके निधन के पश्चात् द ट्रिब्यून ने सावरकर की वसीयत का कुछ अंश छापा, जिसमें उन्होने निर्देश दिया था कि लोग उनकी मृत्यु का शोक मनाने के लिए न तो अपना काम-धंधा बंद करे, न हड़ताल करें, न ही लोगों को किसी भी प्रकार की असुविधा होने दें। उनका दाह संस्कार विद्युत शवदाह गृह में बिना किसी कर्मकाण्ड के किया जाय। ज्यादा हो तो कुछ वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जा सकता है। शव को साधारण तरीके से मोटर द्वारा दाह संस्कार के लिए ले जाया जाए। सावरकर ने यह भी निर्देश दिया कि कोई पिंडदान न किया जाय। उनकी मुत्यु पर शवयात्रा में लगभग दो लाख लोग शामिल हुए। सावरकर को देश-विदेश के अनेक विभूतियों ने श्रद्धांजली दी। इंदिरा गॉधी ने श्रद्धांजली अर्पित करते हुए कहा कि- ‘उनके निधन ने समकालीन भारत की एक महान विभूति को हम सब के मध्य से हटा दिया़़..... देषभक्ति और साहस का दूसरा नाम....उत्कृश्ट क्रॅा्रतिकारिता के सांचे में ढला....असंख्य लोगों ने उनसे प्रेरणा प्राप्त की....।
र्गेनाइजर ने लिखा- विनायक दामोदर सावरकर अब नहीं रहे, एक असाधारण व्यक्ति गुजर गया है..... चिलचिलाती धूप और रात के बावजूद भी हजारो लोग खड़े रहे, जीवन के अनेकों क्षेत्रों से एक लाख से अधिक लोगों ने शवयात्रा में भाग लिया। विडंबना यह रही एक भी मंत्री शामिल नहीं था।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन के पास आयोजित एक औपचारिक कार्यक्रम में ‘जनता का भारत रत्न’ अमर रहे’ के गगन भेदी नारों के साथ उन्हें अंतिम प्रणाम दिया।
निष्कर्षतः संक्षिप्त में मात्र इतना कहना ही अशेष होगा कि विनायक दामोदर सावरकर भारत के प्रथम नागरिक थे, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में मुकदमा चला। प्रथम क्रॉतिकारी थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा दो बार आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। प्रथम साहित्यकार थे, जिन्हें लेखनी एवं कागज से वंचित किया गया। सावरकर ने अंडमान जेल की दीवारों पर कीलों, पत्थर, ईटों और कॉंटां और यहॉं तक कि अपने नाखूनों से विपुल साहित्य का सृजन किया। साथ ही ऐसी सहस़्त्रों पंक्तियों को वर्षो तक कंठस्थ कर सहबंदियों द्वारा देशवासियों तक पहुॅंचाया। सावरकर प्रथम भारतीय लेखक थे, जिनकी पुस्तकें मुद्रित व प्रकाशित होने से पूर्व ही दो-दो सरकारों ने जब्त की । यह कालजयी साहित्सकार ने अंडमान एवं रत्नागिरि की कालकोठरी में रहकर कमला, गोमांतक, हिन्दुत्व, विरहोच्छवास, हिन्दूपदपादशाही, उत्तर क्रिया, संयस्त खड़ग आदि अनेक ग्रंथ व आलेख लिखें । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हीं से प्रेरणा लेकर आजाद हिन्द फौज की स्थापना की ।
लेखक डॉ0 राजकुमार,
सहायक प्रोफेसर, विश्वविद्यालय इतिहास विभाग,
रॉची विश्वविद्यालय, रॉची।
संदर्भ सूची
रघुवेंद्र तंवर, विनायक दामोदर सावरकर, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2916, पृ0 22,
वही, पृ0 32
वही, पृ0 95
धनन्जय कीर, वीर सावरकर, बांबे, 1966, आमुख।
द ट्रिब्यून, 05 फरवरी, 1966 ।
द ट्रिब्यून, 27 फरवरी, 1966 ।
कीर, वीर सावरकर, पृ0 38 ।
सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ वीर सावरकर, भाग-1, द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंसः 1857,अभिशेख प्रकाशन, (चंडीगढ़ 2007), ।
वही, पृ0 72 ।
वही, पृ0 274 ।
द ट्रिब्यून, 27 फरवरी, 1966 ।
चित्रा गुप्ता, बैरिस्टर सावरकर, पृ0 135, उद्धृत कीर।
द ट्रिब्यून, 24 जुलाई, 1910 ।
द ट्रिब्यून, 01 फरवरी, 1911 ।
सावरकर, माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाईफ, पृ0 59 ।
वही, पृ0 266 ।
सावरकर, हिन्दुत्व, हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली, पृ0 112 ।
सावरकर, हिन्दू राष्ट्रीय दर्शन, सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ वीर सावरकर, पृ0 264 ।
कीर, वीर सावरकर, पृ0 177 ।
मनोहर मालगांवकर, द मैन हू किल्ड गॉंधी, मैक्मिलन प्रकाशन, लंदन, पृ0 284 ।
कीर, वीर सावरकर, पृ0 528 ।
द ट्रिब्यून, 27 फरवरी, 1966 ।
द ऑर्गेनाइजर, 06 मार्च, 1966 ।