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विकास की आस में मूलवासी : डॉ अपर्णा 

रांची, 07 जनवरी  :  झारखंड राज्य के गठन के दो दशक बीत जोने के बाद भी यहाँ के मूल निवासी अपने उन्नयन की बाट जोह रहे हैं । यहाँ  के चौथाई से अधिक (26.30%) आबादी अनुसूचित जनजाति की हैं । राज्य के 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षेणों के अनुसार इन अधिसूचित जनजातियों के केवल 6% ही नियमित वेतनभोगी हैं जिसमें केवल 3.5 फीसदी ही सरकारी सेवाओं से संबद्ध हैं । 

प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद राज्य की प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से काफी कम है और इस पैमाने पर भी अनुसूचित जनजातियों की स्थिति और  दयनीय है, जिनके 80% परिवारों के सर्वाधिक कमाऊ सदस्य की आय भी 5000 महीने से कम है । 
झारखंड राज्य में कुल 32 जातियों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया है, इसमें असुर, बिरहोर, पहाड़िया, बिरजिया सरीखी 9 जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि इन्हें संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है । उराँव, खरिया सरीखे कुछ को अपवाद माना जाय तो लगभग सभी जनजातियों की शैक्षणिक स्थिति चिंतनीय है । 32 जनजातियों में 10 जनजातियों की साक्षरता आधे से भी कम है जबकि महिलाओं में यह आँकड़ा 24 जनजातियों तक पहुँच जाता है । केवल 3 फीसदी लोग ही स्नातक हैं, जबकि भुईयाँ, तोरी जैसी जनजातियों में तो स्नातक छात्र/छात्रा की संख्या एक फीसदी से भी कम है । तकनीकी / गैर-तकनीकी दक्षता प्राप्त डिप्लोमाधारी की संख्या 0.1% है जबकि कई जनजातियों में तो यह शून्य है । मध्य विद्यालय से उच्च विद्यालय के अंतरण में “स्कूल ड्राप ऑउट” काफी अधिक है, जिसके कारण केवल 15% छात्र ही मैट्रिक तक की पढ़ाई पूर्ण कर पाते हैं । सवंदेनशील जनजाति और छात्राओं में ‘ड्राप ऑउट ‘ की समस्या सर्वाधिक है । 
चितंनीय शैक्षणिक अवस्था, दयनीय आर्थिक स्थिति, तकनीकी अज्ञानता इनके उन्नयन के बाधक तत्व हैं । जिसके कारण ये अभी तक अंध-विश्वास, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, जैसे सामाजिक कुरीतियों के मकड़जाल से निकल नहीं पा रहे हैं । इन्हीं कुरीतियों का फायदा उठाकर असामाजिक तत्व इन्हें मुख्यधारा से परे करते हैं । राज्य के अधिकांश जिलों में अतिवादी समस्या का मूल कारण इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति है । हालिया समय में कुछ जिलों में पत्थलगड़ी भी इसी का फलाफल है । इन समस्याओं के साथ–साथ धर्मांतरण का भी प्रमुख कारण इनकी शैक्षणिक व सामाजिक स्थिति ही है । 
हालाँकि एकलव्य आवासीय विद्यालय/ आश्रम आवासीय विद्यालय के जरिए सरकार इनके उन्नयन हेतु सार्थक प्रयास तो कर रही है, किन्तु इनकी संख्या केवल 7 और क्षमता लगभग 2000/- छात्र ही है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि झारखंड के 259 प्रखंडों में 111प्रखंड संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत जनजातीय क्षेत्र के रूप में अधिसूचित है । इन आँकड़ों से सरकारी उदासीनता ही दिखती है वह भी तब जबकि अपने गठन के दो दशकों में लगभग डेढ़ दशक तक राज्य का मुखिया इन्हीं  जनजातियों में से एक रहा हो । 
सामाजिक समरसता और न्याय के साथ सर्वागीण विकास के लिए शिक्षा और गरीबी अभिशाप है । इसके बिना विकास की बात बेमानी है । हालाँकि विगत कुछ वर्षों में राज्य ने इस क्षेत्र में कई सफलताएँ भी अर्जित की है, परन्तु 23 राज्यों के मानव विकास सूचकांक में राज्य का 19 वाँ स्थान तो यही बयाँ करता है कि मंजिल अभी दूर हैं । 

डॉ अपर्णा 
सहायक प्राध्यापक
राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध विभाग 
केंद्रीय विश्वविद्यालय झारखण्ड, ब्राम्बे, रांची


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