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राष्ट्रवाद गणतंत्र का रक्षक : संजय कुमार आज़ाद

रांची, 26 जनवरी  : हम अपने राष्ट्र की तुलना मां से करते है और यह शिक्षा हमें अपने पूर्वजों से मिली है। जिस प्रकार मां अपने बच्चों का भरण-पोषण करती है, उसी प्रकार राष्ट्र भी अपने नागरिकों के जीवन की हरसंभव आवश्यकताओं को अपने प्राकृतिक संसाधनो द्वारा पूरा करती है।

Azad copyराष्ट्र के साथ अपना सम्वन्ध माँ-बेटे का होने के कारण ही हमे इसका शोषण की आज्ञा नही मिलती। इस देश के हर नागरिक के लिए यह पवित्र भूमि मात्र भूमि का टुकड़ा नही बल्कि हमारी स्मिता और अस्तित्व इसमें घुली हुई है जिसका प्रत्यक्ष प्रस्फुटन राष्ट्रवाद में दिखती है। हम राष्ट्रवाद की भावना में  ही वर्गीय, जातिगत एवं धार्मिक विभाजनों सहित कई मतभेदों को भुलाने में कामयाब होते हैं और जब भी दूसरे देशों से युद्ध की स्थिति पैदा होती है, तो उस समय सभी नागरिक एकजुट होकर अपने देश के सैनिकों की हौसला अफजाई करते हैं।

भारतीय गणतंत्र के सात दशक हमने गुलामी से छुटकारा के उपरांत देखा है, किंतु यह पवित्र भूमि सदियों पूर्व विश्व को गणतंत्र की सिख दी है,जिसका उदाहरण अपने पास लिकच्छवि या वैशाली का गणतन्त्र है। इस गणतंत्र को आगे रख किस तरह आज राष्ट्रवाद को लांछित की जा रही, उसे तोड़मरोड़ कर युवा वर्ग को दिग्भ्रमित करने की कोशिश की जा रही वह निन्दनीय है। ऐसा करने में वैसे लोग इस दिशा में लगे है, जिनके अनुसार अंग्रेजों या मुग़लो से पहले भारत था ही नही,यह राष्ट्र भी नही था।

अभी वर्तमान राजनीति के कोलाहाल में हम देख रहे हैं कि किस प्रकार हमारे राजनेताओं ने अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के सामने एक गंभीर चुनौती उत्पन्न कर दी है यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजनीतिक चाहत की इच्छाशक्ति ने भी राजनीतिक सम्प्रदायवाद की भावनाओं को उभारकर झूठ और प्रपंच के सहारे आधुनिक राष्ट्रवाद के लिए एक विकराल समस्या खड़ी की जा रही है जिसका दंड वर्तमान पीढ़ी के लोगों को ही नही आने बाले पीढ़ी को भी भोगना पड़ेगा। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जातिवाद, क्षेत्रवाद,भाषावाद,भोगवाद जैसे राजनीतिक हथियार हमारी राष्ट्रवाद की भावना को गहरी ठेस पहुंचा युवा भारत को हतोत्साहित कर रहा है। इस संदर्भ में 24 मई 1924 को मुंबई के बहिष्कृत वर्ग की परिषद वार्शि  जिला शोलापुर में डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था -"जातिसूचक नाम नहीं होनी चाहिए और सिर्फ हिंदू कहा जाना पर्याप्त होना चाहिए, इस तरह कोई भी एक दूसरे के साथ नीच सलूक नहीं करेगा, लोगों के बीच सहानुभूति जातिगत संबंध पर आधारित नहीं होगी बल्कि यह भेदभाव से मुक्त होगी"। काश डॉक्टर अम्बेडकर की इस नियति को भारत के राजनीतिक चिंतक स्वस्थ गणतंत्र के लिए आत्मसात करते?

आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जिस उच्च्श्रृंखलता का प्रयोग किया जा रहा वह चिन्तनीय है। अभिव्यक्ति पर संयुक्त राष्ट्र सार्वभौमिक घोषणा वर्ष १९४८ में शामिल कथन :" व्यक्ति को राय और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है। इस अधिकार में हस्तक्षेप के बिना,अपनी बात रखने की स्वतंत्रता और किसी भी मीडिया के माध्यम से सूचनाओं और विचारों को तलाशने और प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता शामिल है। वही इस सम्बंध में "भारत के संविधान के अनुच्छेद १९(१) के तहत सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है। यह अधिकार जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी, एक व्यक्ति को अपनी राय और विचारों को साझा करने और अपने समाज और साथी नागरिकों की भलाई के लिए योगदान करने का मंच प्रदान करती है । वही इसके साथ कई कमज़ोर पहलू भी जुड़े हुए हैं। बहुत से लोग इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं। खासकर जो विचार हमारे मनोनुकूल नही उसपर हम किस तरह प्रदर्शन करते है वह सर्वविदित है।

इस दिशा में खासकर मार्क्स के विचारसमुहो की आक्रमकता जहां लोकतंत्र को धूमिल करती वही युवाओ को हिंसा के लिए प्रेरित करती है। तभी तो 04 दिसंबर 1945 को नागपुर में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर अपने संबोधन में कहते हैं कि-"अब कांग्रेस ने उन्हें(कम्युनिस्ट) निकाल बाहर किया है,जिसके कारण वे यहां से निकलकर हमारे यहां आए हैं और यहां फिर उपद्रव करना चालू कर दी है, इसलिए मेरा आप लोगों से कहना है कि आप कम्युनिस्टों से दूर ही रहे,उन लोगों को अपना उपयोग न करने दें"। वही इनके समाज विरोधी कृत्यों को समझ कर 20 नवंबर 1956 विश्व बौद्ध सम्मेलन, काठमांडू, नेपाल में अपने संबोधन में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर कहते हैं-"कम्युनिस्ट अराजक है उन्हें हिंसा का मार्ग प्रिय लगता है"। बदस्तूर आज भी यह विचार समूह संविधान प्रदत अधिकारों को युवाओ के बीच उग्रता,उच्च्श्रृंखलता और देश के एकता को खंडित करने की दिशा में ले जा रहा है।ऐसे टुकड़े टुकड़े गैंग भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रौढ़ शिक्षार्थी के वेश में ड्रग्स,डिस्को,डांस की चाशनी में लपेट अपनी विकृत सोच से युवाओ को कुंठित कर रहा है।

इस देश के खासकर युवावर्ग अपने बहुमूल्य प्राचीन आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक खोजों, ऋषियों, वैज्ञानिकों और उनकी विश्व को दी गयी देन के प्रति पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। सत्तालोलुप नेताओं,धनपीपासू बुद्धिजीवियों, मुगलों और अंग्रेजों के गुलामों, चाटुकारों और सेवकों ने इस राष्ट्र के जनमानस के दिल दिमाग को अपने अतीत के महान  वैभव, श्रेष्ठतम खोजों, अविष्कारों और महानतम जीवन मूल्यों के सृष्टा और उद्घोषकों के सम्बन्ध में पूर्णतया अनभिज्ञ और अँधा बनाये रखा है। भारत की गुरुकुल शैक्षणिक परंपराओं से ही नही विवेकानंद और तिलक के रीति नीति को भी इन्ही विचारसमुहो ने एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत युवाओ के पाठ्यक्रमों से दूर रखने का कुचक्र कर आज उन शिक्षण संस्थानों को राष्ट्रवाद के जगह टुकड़े टुकड़े गिरोह काबिज होकर विश्व पटल पर गणतंत्र को धूमिल व लांछित कर रहा।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में कुछ शैक्षिक संस्थान भी भारत विरोधी नारेबाजी और विरोध प्रदर्शन द्वारा भारत को दो हिस्सों में बाँटने की घिनौनी विचारधारा फैलाते हुए नजर आए हैं।यदि कोई व्यक्ति इन राष्ट्रविरोधी कुकृत्यों पर उंगली उठाता,इससे राष्ट्रवाद कमजोर होता ,की बात कहता उसे या साम्प्रदायिक या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का व्यक्ति माना जाता है।जबकि केवल राष्ट्रवाद की एक अटूट भावना द्वारा ही भारत को राष्ट्र-विरोधी ताकतों की चपेट में आने से,इस देश के युवाओं को पथभ्रष्ट होने से बचाया जा सकता है।

आज हम जिस गणतंत्र की दुहाई देते है,उसके पूर्व हम अपनी स्वतंत्रता,जिसे हमने भारत के लाखो युवाओं के सर्वोच्च बलिदान के फलस्वरूप हासिल किया है, वह केवल उनकी राष्ट्रवाद और देशभक्ति की वजह से ही संभव हो पाया था। इसलिए हमें राष्ट्रवाद की भावना को कभी कमजोर नहीं करना चाहिए ताकि हमसब सर्वदा अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए तत्पर रह सकें।आज का युवा राष्टवाद की चाशनी में डूबा विकास चाहता है। यह देश का दुर्भाग्य है कि इस महान देश और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ लोग इसकी कब्र खोदने पर तुले हुए है चाहे वो संसद हो, न्यायपालिका हो, मीडिया हो या दिग्भ्रमित जनता,लोकतंत्र की अर्थी तैयार करने में लगे हुए हैं। लोकतांत्रिक विरोध के आड़ में अराजकता और बुद्धिहीनता और चारित्रिक दिवालियेपन की ऐसी पराकाष्ठ कभी देखने को नहीं मिली, इस देश में, यह कहाँ आ गए हैं हम, हमे इसे बदलने का कृत संकल्प इस गणतंत्र के पावन पर्व पर लेना होगा।

आज जब पूरा विश्व मुठी में है। इंटरनेट का प्रयोग ने अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की आजादी को बढ़ा दी है। विशेषकर युवाओं के बीच अति लोकप्रिय सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों के आगमन ने इसे और तीब्रता से आगे बढ़ाया है। लोग इन दिनों हर चीज़ पर और सब कुछ पर अपने विचार देने के लिए उत्सुक है चाहे उन्हें इसके बारे में ज्ञान हो या नहीं। वे बिना किसी की भावनाओं की कद्र करते हुए या उनके मान-सम्मान का लिहाज़ करते हुए नफरतपूर्ण टिप्पणियां भी लिखते हैं। यह निश्चित रूप से इस आजादी का दुरुपयोग कहा जा सकता है और इसे तुरंत बंद होना चाहिए।आज का भारत वैचारिक असहिष्णुता को दो अलग अलग चश्मो से देखने का जो कुकृत्य कर रहा वह वह चिन्तनीय है।संविधान हमारा सर्वोच्च धर्मग्रंथ है और गणतंत्र हमारा धर्म है जो राष्ट्रवाद रूपी ब्रम्हांड में चलायमान है ।यदि गणतंत्र को हम धर्म के स्थान पर रखते हुए संस्कृत के इस श्लोक का चिंतन करे तो गणतंत्र का भविष्य वही है जैसा धर्म का है अर्थात-
                   धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।।  तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः मानो धर्मो हतोवाधीत् ॥ 

(धर्म उसका नाश करता है जो उसका (धर्म का ) नाश करता है | धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है | अतः धर्मका नाश नहीं करना चाहिए | ध्यान रहे धर्मका नाश करनेवालेका नाश, अवश्यंभावी है।) 
यानी गणतंत्र उसका नाश करता है जो गणतंत्र का नाश करता,गणतंत्र उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है अतः गणतंत्र का नाश(गलत व्याख्या) नही करना चाहिए।


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