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भारत के उत्थान का आधार है सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन : नरेंद्र सहगल

रांची, 11 फरवरी : राष्ट्र, सांस्कृतिक और मानवीय सभ्यता पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले विद्वान लोग प्राय: अपने उद्बोधनों में उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल की इन पंक्तियों को दोहराना नहीं भूलते,

यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से ।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।।

भारत के संदर्भ में इन पंक्तियों के भावार्थ की गहराई में छिपे विचारणीय बिंदु पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इकबाल द्वारा इंगित वह ‘कुछ बात’ क्या है, जिसके कारण हमारा राष्ट्रीय अस्तित्व आज भी सीना ताने चट्टान की तरह मजबूत है। वह है हमारा सांस्कृतिक राष्ट्र और यही हमारे देश की सर्वविध समस्याओं का एकमात्र हल है। हमारे राष्ट्र का आधार है, हमारी शाश्वत हिंदू संस्कृति और और हमारी इस संस्कृति का निचोड़ है मानवता।

VSK 11 02 20राष्ट्र की पहचान है संस्कृति : भारतीय संस्कृति एवं भारतीय राष्ट्र के प्रखर विद्वान पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहा करते थे कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी, संस्कृति का विचार अथवा आधार लुप्त हो जाने पर राष्ट्र की पवित्रता और अवधारणा एक स्वार्थी, पदलोलुप लोगों की राजनीति मात्र रह जाएगी। स्वराज्य तभी साकार और सार्थक होगा, जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इसी रास्ते से हमारा विकास होगा और पृथकतावादी शक्तियां समाप्त होंगी।

इसे भारत और भारतवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सारे विश्व में सर्वोत्तम संस्कृति एवं उस संस्कृति को व्याख्या देने हेतु उच्चकोटि की स्पष्ट और व्यावहारिक शब्दावली के होते हुए भी हम विदेश की भौतिकवादी सभ्यता और घोर संकीर्ण व अस्पष्ट शब्दावली को अपनाने में गौरव का अनुभव करते हैं। अंग्रेजों ने भारत पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए भारत की श्रेष्ठ सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करके, पाश्चात्य सभ्यता का दबाव बनाया और शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करके भारत की संतानों को भारतीयता अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्रीयता से काट डाला।

राष्ट्रीयता को खुली चुनौती : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी हम धूर्त ब्रिटिश शासकों की ही खींची गई लकीरों को अंधाधुंध पीटते चले जा रहे हैं। लॉर्ड मैकाले ने तो भारत में एक श्रेणी काले अंग्रेजों की बनानी चाही थी, परंतु अब तो अपने आपको काले अंग्रेज बनाने की स्पर्धा हो रही है। सारा देश स्वदेशी की मूल भावना से भटककर विदेश की चकाचौंध के गर्त में डूब रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्र का आधार क्षीण होने की वजह से ही देश में अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्थिरता, विक्षोभ, भटकाव, बेरोजगारी, भ्रष्ट प्रशासन एवं सांस्कृतिक प्रदूषण जैसी समस्याएं खड़ी हुई हैं। सुलझने की बजाए और भी ज्यादा विकराल होती जा रही ये सारी समस्याएं देश की स्वतंत्रता, अखंडता, सुरक्षा और राष्ट्रीय स्वाभिमान को भी चुनौती दे रही हैं।

भारतीय संस्कृति के अमर-अजर संस्कारों से विहीन मात्र जिविकोपार्जन के सिद्धांत पर आधारित शिक्षा पद्धति ने देश की युवा पीढ़ी को राह भटकाने में अपनी भूमिका इस सीमा तक निभाई है कि आज का युवा अर्थात् देश का भविष्य किसी कटी हुई पतंग की तरह भौतिक वायुमंडल में भटक रहा है। सुसंस्कृति के अभाव में व्यक्तिगत चरित्र के साथ-साथ सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र भी दिशाहीन हो रहे हैं। राष्ट्र-चिंतन के स्थान पर भोग चिंतन विकसित होने से परस्पर सहयोग, सह अस्तित्व, सहानुभूति, और समर्पण जैसे भाव लुप्त होते जा रहे हैं। वर्तमान में व्याप्त भ्रष्टाचार का महारोग इसी का परिणाम है। पश्चिम की भोगवादी संस्कृति हमारे समाज जीवन को राष्ट्र की भारतीय धरोहर से विमुख कर रही है।

भारतीय राष्ट्र का आधार हिन्दुत्व : भारत का राष्ट्र जीवन अर्थात् इस धरती पर पुष्पित पल्लवित संस्कृति का आधार हिंदुत्व है, जिसे मजहब, पंथ एवं जातिवाद के संकुचित दायरे में धकेलने का प्रयास किया जा रहा है। सत्ता की राजनीति ने इस प्रयास को प्रोत्साहित करते हुए वोट बैंक की समाजघातक व्यवस्था को जन्म दिया है। इस संदर्भ में हिन्दुत्व का वास्तविक अर्थ समझना भी जरूरी है। हिन्दुत्व इस देश के किसी पंथ, (रिलीजन) का नाम न होकर एक राष्ट्रवाचक अवधारणा है। हिन्दुत्व भारत के भूगोल और संस्कृति का परिचायक है। हिन्दुत्व को धर्म के सर्वस्पर्शी, शाश्वत और विशाल धरातल पर रखा जा सकता है। इसीलिए हिन्दुत्व का संबंध धर्म के साथ है, जबकि मजहब का संबंध पूजा के साधारण तौर-तरीकों से होता है। अतः हिन्दू धर्म जीवन पद्धति है और यही भारत की राष्ट्रीयता का आधार है, यही सांस्कृतिक राष्ट्र है।

भारत और भारतीयता के प्राणतत्व हिन्दुत्व अर्थात् एक आदर्श जीवन पद्धति को गीता में दी गई धर्म की सुंदर परिभाषा से समझा जा सकता है – यतोभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म अर्थात् धर्म एक प्रकार की व्यवस्था है, जो मनुष्य को अपनी इच्छाओं पर संयम रखने को प्रोत्साहित करती है और यही व्यवस्था संपन्न जीवन का उपयोग करते हुए श्रेष्ठ कर्म या दैवी तत्व की ओर बढ़ने की शक्ति प्रदान करती है। गीता में ही दूसरे शब्दों में धर्म की व्याख्या इस प्रकार है, ‘धारणात् धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजा:’ अर्थात् वह शक्ति, जो व्यक्तियों को एकत्रित रखती है और उन्हें समाज के रूप में धारण करती है।

विकृत मनोभाव : गीता में वर्णित धर्म की यही अवधारणा भारत में सांस्कृतिक राष्ट्र का आधार है, जिसका संबंध सभी पंथों, मजहबों और जातियों से है। भारतीय संस्कृति का यही सारतत्व सामाजिक सौहार्द, भौगोलिक अखंडता और राष्ट्रभक्ति की जीवंत प्रेरणा है। देश में इस समय प्रचलित भोग-विलास पर आधारित पश्चिम की सभ्यता को संस्कृति कहना भारत की चिर पुरातन मानवीय संस्कृति का अपमान करना नहीं तो और क्या है? आज तो भौंडे नृत्य, नाच गाने, अभद्र रहन-सहन और पबों / होटलों में खाने-पीने जैसे कृत्यों को सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाता है। इस तरह की तथाकथित संस्कृति कभी भी समाजसेवा, देशप्रेम और समर्पण की प्रेरणा नहीं दे सकती. इससे तो हिंसा, भ्रष्ट व्यवहार और झूठ फरेब जैसी विकृतियां ही पैदा होंगी।

दूसरी और आध्यात्मिकता, त्याग, सत्य और अहिंसा पर आधारित भारत की सनातन संस्कृति, मनुष्य के आचरण को सुधार कर जीवन में एकता और भाईचारे के भावों का समावेश करती है। देश और समाज से लेने की बजाए देने की प्रेरणा देती है। विभिन्न मजहबों, जातियों और मान्यताओं के व्यक्तियों को मनुस्मृति में वर्णित जीवन दर्शन (धर्म) के 10 लक्षणों धृति, क्षमा, शमन, चोरी ना करना, शुद्धता, इंद्रिय निग्रह, धि, विद्या, सत्य एवं अक्रोध जैसे मानवीय सिद्धांतों का पालन करने में संकोच नहीं होना चाहिए। हिन्दुत्व अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन के प्रति भारतीयों की प्रतिबद्धता ही विदेश निष्ठा, देशद्रोह और आपसी फूट जैसी मनोवृत्ति पर अंकुश लगाने का सामर्थ्य रखती है।                                ……………क्रमशः


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