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- Written by S.K. Azad , Edited by Bharat Bhushan
- Category: RSS Media Cell , Jharkhand Wing
आत्मनिर्भर भारत निर्माण में भारतीय संस्कृति और मूल्यों की भूमिका
रांची, 22 जुलाई : आत्मनिर्भर भारत को आर्थिक गतिविधि तक ही सीमित कर देना एक भारी भूल होगी। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो विकास के पैमाने पर भी आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना तब तक संभव नहीं जब तक इसे केवल देशी उद्योग धंधों, निजी कंपनियों, विनिवेश आदि के रूप में प्राप्त करने की कोशिश की जाए। यह आत्मनिर्भरता के संकीर्ण अर्थ की ओर ले जानेवाला होगा। आत्मनिर्भर भारत एक सुनिश्चित किन्तु व्यापक आयाम है, जो वैयक्तिक स्तर पर उतना हीं सार्थक है जितना सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर। भारत में आत्मनिर्भरता को पाने का लक्ष्य जितना प्रबल है, उसे पाने के क्रम में उतना हीं प्रबल अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़ाव और प्राचीन मूल्यों का समावेश भी होना चाहिए। सही मायनों में आत्मनिर्भर होने का अर्थ है-अपनी मूल्य और संस्कृति जैसे कि अपने जीवनशैली, रीति रिवाज, रहन सहन, आपसी संबंध आदि का समुचित उपयोग करते हुए हर क्षेत्र में उत्पादन की क्षमता विकसित करना। यह विचार आत्मनिर्भरता को सही मायने में प्राप्त करने के साथ साथ सोच में और हमारे जीने के ढंग में आमूल चूल परिवर्तन लाएगा। आत्मनिर्भर भारत के लिए जड़ से इस तरह की मजबूती की जरूरत है, क्योंकि इसके बाद प्राप्त आत्मनिर्भरता स्थायी और अपरिवर्तनीय होगी।
हम आधुनिक विकास की दौड़ में आत्मनिर्भर बनने के लिए शॉर्टकट्स पर आश्रित न हों तो बेहतर होगा। इसका ये मतलब नहीं है कि आधुनिकता में हम पिछड़ जाएंगे। हम आधुनिक तकनीक और नवाचार को अपनी संस्कृति के स्वाभाविक गुण के रूप में देखें तो हमारा अचार, विचार और व्यवहार आत्मनिर्भर के संकल्प को पूरे करनेवाले होंगे। हमारी ऋषि मनीषियों की पुण्य व कर्म भूमि भारतवर्ष सदा से आत्मनिर्भरता के सिद्धान्तों को आत्मसात करती आयी है। हमने जीने के ढंग को बदला और आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों से दूर होते चले गए। प्राचीनकाल से हीं ज्ञानेंद्रियों का प्रशिक्षण हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य रहा है। आध्यात्मिक गुरुओं का जीवन हो या गुरुकुल में शिक्षा प्रदान करनेवाले आचार्यों का, औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा केंद्र के रूप से हम सम्पूर्ण विश्व को यह सिखाते रहे कि वास्तविक ज्ञान है पुरुष का प्रकृति से सजीव सम्बन्ध और हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ इतनी सक्षम हो सकती हैं कि हम विचारों के माध्यम से स्थूल रूप के पार देख सकते हैं। हमने वो क्षमता आज खो दी है जो हमें सामने दिखनेवाले प्रकृति या पुरुष के आंतरिक और गहराई में किसी भी वस्तु या स्थिति से सम्बंधित ज्ञान के सम्पूर्ण रूप से देखने में सहायक होती थी। उदाहरणस्वरुप हम ऐतिहासिक दृष्टि से देश के महान सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तम्भ के रूप में स्वामी विवेकानन्द को देखते हैं। जीवन की केवल 39 वर्षों की छोटी आयु में भी उन्होंने देश और विदेश में वो कार्य कर दिए जो दूसरों के लिए 100 वर्षों की आयु में भी सम्भव नहीं। वो जहां भी गए, ज्ञान के उस क्षेत्र में अग्रणी रहकर सहर्ष नेतृत्व प्रदान किये। सीमित संसाधनों के बावजूद शिकागो सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए न केवल विश्व को हमारी संस्कृति का परिचय कराया बल्कि सहर्ष यह स्वीकार कराया कि हम वास्तव में विश्वगुरु हैं। वैसे आध्यात्मिक गुरु जिन्होंने भारत की पवित्र भूमि पर ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण सहज हीं प्राप्त कर लिया था और वो इतनी सक्षम थीं कि हर ज्ञान शिखर पर विराजमान था। आत्मनिर्भरता के वैयक्तिक स्तर पर वो आदर्श को प्राप्त कर चुके थे। इस कारण वो सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी देश को आत्मनिर्भर बनाने के लक्ष्य में सहज रूप से बहुमूल्य योगदान दे गए। हुआ यूं कि जिस शिप से वो शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में हिस्सा लेने जा रहे थे, उसी शिप पर महान उद्योगपति और आत्मनिर्भर भारत के प्रतीक माने जानेवाले टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (TISCO) के संस्थापक जमशेदजी नसरवान जी टाटा भी जा रहे थे। उनका लक्ष्य था अमेरिका में जाकर उद्योग की स्थापना के लिए विशेषज्ञों से राय लेना और स्वामी विवेकानन्द तो संस्कृति का परचम लहराने जा रहे थे। आपसी बातचीत के दौरान स्वामी जी के विज्ञान, संसाधन, खनिज, तकनीक, श्रम, उद्योग इत्यादि पर गहरी समझ देखकर जमशेदजी भी हैरान रह गए। यही नहीं स्वामी जी ने सारे विशेषज्ञों के मिलने से पहले हैं टाटा में उद्योग लगाने के लिए सलाह दी और नजदीक के उड़ीसा के मयूरभंज जिले के अपने परिचित तत्कालीन भूगर्भशास्त्री प्रमथनाथ बोस से इस पर पूरी जानकारी लेने की बात बताकर उद्योग स्थापित करने के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया। 1907 में टाटा ग्रुप ने टाटा स्टील की स्थापना की और आज भी सफल उद्योग के रूप में हम स्वामी जी के उस गहरे वैयक्तिक आत्मनिर्भर के उच्चतम स्तर के ज्ञान पर हम गर्व कर सकते हैं जिसने राष्ट्रीय आत्म निर्भरता में बहुमूल्य योगदान दिया। उपर्युक्त प्रसंग की सत्यता इसी बात से प्रमाणित होती है कि माननीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने भी इसकी चर्चा की और कई दैनिक समाचार पत्रों में भी इसे आत्मनिर्भरता से जोड़ा गया है।
इसमें कोई शंका नहीं कि स्वामी जी को ये ज्ञान भारतीय संस्कृति और मूल्यों के कारण सहज रूप से प्राप्त हुए थे। अपने अपने वातावरण में ज्ञान की सीमा, ज्ञानेंद्रियों की प्रशिक्षण के क्षमता के कारण प्रकृति या मानव सम्बन्धी गूढ़ रहस्यों तक चली जाती हैं। भारतीय पृष्ठभूमि में आत्मनिर्भरता की यह सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होनी चाहिए। विश्व में जहां प्रशिक्षण वाह्य जानकारी पर आधारित हो सकती है। इसलिए आत्मनिर्भर बनने के लिए हमारी शिक्षा पूरे विश्व से अलग होनी चाहिए, क्योंकि ये ज्यादा समग्र तो है हीं, इस ओर हम कहीं ज्यादा सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं और वांछित प्रतिफल भी शीघ्र प्राप्त कर सकते हैं। पूर्व राष्ट्रपति माननीय डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने स्पष्ट किया था कि भारत को आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए विश्व का अनुसरण करने की जरूरत नही है, वरन सांस्कृतिक और मूल्यों की विशिष्टता पर आधारित हमारी आत्मनिर्भर सम्बन्धी संकल्पना, आयाम और सिद्धान्त विशिष्ट होने चाहिए।
डॉ सुशील कुमार तिवारी
एसोसिएट प्रोफेसर, स्नातकोत्तर विभाग, शिक्षा संकाय, जमशेदपुर महिला महाविद्यालय, जमशेदपुर