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गूढ़ार्थ के पर्यायवाची – भगवान शिवशंकर

प्रशांत पोळ

गूढ़ार्थ के पर्यायवाची – भगवान शिवशंकररांची, 17 फरवरी सृष्टि में असीम आनंद का वातावरण है. वसंत की उत्फुल्लता चहुं ओर दृष्टिगोचर हो रही है. ऋतुओं के संधिकाल का यह महापर्व अपने पूरे यौवन पर है. वातावरण में बाबा भोलेनाथ के जयकारों की गूंज है. ‘कंकर – कंकर में शंकर’ की उक्ति पर दृढ़ श्रद्धा रखने वाला हिन्दू समाज, उत्सव की मुद्रा में है. कल महाशिवरात्रि है..!

सृष्टि के सृजन का दिन. भगवान शिव – पार्वती के विवाह का दिन. प्रत्यक्ष ब्रह्म से साक्षात्कार का दिन. हिन्दू धर्म का सौन्दर्य है कि यह एकेश्वरवादी नहीं है. ‘ईश्वर एक है’ यह तो मान्यता है. किन्तु इस एक ईश्वर के अनेक रूप हैं, यह पक्की आस्था है. इन्हीं रूपों में से एक महत्व का स्वरूप है, ‘भगवान शंकर’ का. सृष्टि के विनाश के प्रतीक का. सृष्टि की ऊर्जा के स्रोत का. ईश्वर के सभी रूपों में सबसे गूढ़ और रहस्यमय स्वरूप यदि किसी का होगा, तो वह हैं शिव. भगवान शंकर.

भगवान शिवशंकर की जिस रूप में हम पूजा करते हैं, उसे इस्लामी आक्रांता आने के बाद से ‘शिवलिंग’ के रूप में जाना जाने लगा. मूलतः संस्कृत के ‘लिंगम’ का अर्थ होता है – चिन्ह या प्रतीक. शिवलिंग की उत्पत्ति के बारे में अथर्ववेद में यूपस्तंभ के श्लोक का संदर्भ है. इस श्लोक में एक अनादि – अनंत स्तंभ का वर्णन है. यह स्तंभ या स्कंभ याने ही ब्रह्म..! अथर्ववेद के 10वें कांड के 7वें सूक्त का 35वां श्लोक है –

स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम्.

स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश..

अर्थात ‘स्तंभ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है. स्तंभ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तंभ ही संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है.’

इसका अर्थ यह है कि भगवान शंकर को हम जिस रूप में पूजते हैं, वह ब्रह्मांड का प्रतीक है. अर्थात असीम ऊर्जा, असीम शक्ति का प्रतिमान है. यह ऊर्जा, यह शक्ति चाहे तो हमारे लिए जीवनदायिनी हो सकती है, या संपूर्ण विनाश का कारण भी बन सकती है. ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में, 10वें मण्डल के 129वें सूक्त में लिखा है – ‘शिवलिंग का संबंध ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है’.

हिन्दू धर्म ने इस शक्ति की प्रतीक के रूप में आराधना की, पूजन किया, जिसे बाद में शिवलिंग कहा गया. यहां ‘लिंग’ या ‘लिंगम’ यह शब्द मानवी लिंग से अभिप्रेत नहीं है. प्राचीन काल में बड़े आकार के गोलाकार (यूप) स्तंभ के रूप में भगवान शंकर की आराधना होती थी. प्राचीन मंदिरों में बड़े और भव्य आकार में शिवलिंग मिलते हैं. इस्लामी आक्रांता आने से पहले समूचे भरत खंड में (कंधार, पेशावर से लेकर तो फिलीपिन्स और इंडोनेशिया तक) भगवान श्री शंकर को बड़े, विशाल शिवलिंग के रूप में ही पूजा जाता था. किंतु इस्लामी आक्रांता आने के बाद सब कुछ बदल गया.

बड़े और विशाल शिवलिंगों की पूजा मंदिरों में ही करना संभव था. इस्लामी आक्रमण होते थे तो अन्य देवताओं के विग्रह (मूर्तियां) पुजारी / पंडित उठाकर कहीं छिपा देते थे. किंतु ऊर्जा के प्रतीक इन विशाल शिवलिंगों को कहीं छिपाना संभव ही नहीं था. इसलिये ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के बाद शिवलिंग छोटे आकार में बनने लगे और घरों में उनकी पूजा -आराधना होने लगी. फिर मंदिरों में भी, तुलना में, छोटे आकार के शिवलिंग स्थापित किये जाने लगे.

अर्थात हमारे पूर्वजों ने इस शिवतत्व को ठीक से पहचाना था. इस असीम ऊर्जा के प्रतीक, ‘यूपस्तंभ’ का ज्ञान हमारे पुरखों के पास निश्चित रूप से था.

मूलतः भगवान शंकर यह ऊर्जा के साथ ही ज्ञान के अपरिमित भंडार का प्रतीक हैं. हमारे पूर्वजों ने इस बात को समझा था. किन्तु हम उन संदेशों को डी-कोड करने में, संदेशों का अर्थ समझने में असमर्थता का अनुभव करते हैं. भारत में बारह ज्योतिर्लिंग हैं. इन सभी ज्योतिर्लिंगों को ऊर्जा का स्रोत माना जाता है. इनका वर्णन करने वाला श्लोक है –

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्.

उज्जयिन्यां महाकालम्ॐकारममलेश्वरम् ॥१॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमाशंकरम्.

सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥२॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं गौतमीतटे.

हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं च शिवालये ॥३॥

एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः.

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥४॥

अर्थात इन बारह ज्योतिर्लिंगों में पहला स्थान रखने वाले सोमनाथ मंदिर के बाहर एक स्तंभ है. इसे ‘बाणस्तंभ’ कहा जाता है. (इस बाणस्तंभ के बारे में मैंने विस्तृत रूप से अपनी पुस्तक, ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ में लिखा है.) हजारों वर्ष पुराने इस बाणस्तंभ में एक पट्टिका है, जिस पर लिखा गया है –

‘आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योतिरमार्ग’.

अर्थात इस सोमनाथ मंदिर से दक्षिण ध्रुव पर्यंत, अंटार्टिका तक, बिना बाधा के (बिना जमीन के टुकड़े के) एक सीधी प्रकाश रेखा खींची जा सकती है. इसका दूसरा अर्थ यह है कि दक्षिण ध्रुव से भारत के पश्चिम तट पर, बिना बाधा के, प्रकाशपुंज पहुंचाने वाली सीधी रेखा जिस स्थान पर मिलती है, वहीं पहला ज्योतिर्लिंग स्थापित हुआ..!

हजारों वर्षों पहले, दक्षिण ध्रुव से सोमनाथ मंदिर तक, अबाधित ‘ज्योतिरमार्ग’ है, यह हमारे पूर्वजों को कैसे पता चला? इस ‘ज्योतिरमार्ग’ का ‘ज्योतिर्लिंग’ से क्या संबंध है? यह सब रहस्यमय है. गूढ़ार्थ लिए है.

मात्र सोमनाथ ज्योतिर्लिंग ही नहीं, तो भगवान शंकर के अन्य स्थान भी रहस्य से भरे हुए हैं. दक्षिण भारत में पंचमहाभूतों पर आधारित भगवान शिवशंकर के मंदिर हैं. आश्चर्य की बात यह कि इनमें से तीन मंदिर, जो एक दूसरे से डेढ़ सौ से पौने दो सौ किलोमीटर दूर हैं, वे सब बिलकुल एक सीधी रेखा पर हैं.

यह तीन मंदिर हैं – • श्री कालहस्ती मंदिर, • श्री एकम्बरेश्वर मंदिर, कांचीपुरम, • श्री तिलई नटराज मंदिर, त्रिचनापल्ली.

पृथ्वी पर किसी स्थान को चिन्हित या तय करने के लिए हम जिन कॉर्डिनेट्स का उपयोग करते हैं, एवं जिसे हम अक्षांश व रेखांश कहते हैं. इनमें से अक्षांश (Latitude) अर्थात पृथ्वी के नक़्शे पर खींची गई (काल्पनिक) आड़ी रेखाएं. जैसे कि विषुवत, कर्क रेखा इत्यादि… जबकि रेखांश इसी नक़्शे पर खींची गई लम्बवत रेखाएं. इन तीनों मंदिरों के अक्षांश और रेखांश इस प्रकार से हैं –

मंदिर                 अक्षांश रेखांश      पंचमहाभूत तत्त्व

१.  श्री कालहस्ती मंदिर 13.76 N 79.41 E वायु

२.  श्री एकम्बरेश्वर मन्दिर 12.50 N 79.41 E पृथ्वी

३.  श्री तिलई नटराज मन्दिर 11.23 N 79.41 E आकाश

यह तीनों मंदिर एक ही रेखांश बिंदु 79.41E पर स्थित हैं, अर्थात एक ही सीधी रेखा पर हैं. यह तीनों मंदिर कब निर्माण किए गए, यह बताना कठिन है. इस क्षेत्र में जिन्होंने शासन किया है, वे पल्लव, चोल इत्यादि राजाओं द्वारा इन मंदिरों का नवीनीकरण किए जाने का उल्लेख अवश्य मिलता है. परन्तु लगभग तीन – साढ़े तीन हजार वर्ष पुराने तो हैं ही, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है.

तो फिर यही प्रश्न सामने खड़ा रहता है, उन दिनों जब (पश्चिमी सोच के अनुसार) नक्शा शास्त्र की जानकारी नहीं थी, कंटूर मैप्स उपलब्ध नहीं थे, सेटेलाइट इमेजिंग का तो प्रश्न ही नहीं था, तब हमारे पूर्वजों ने इतनी अचूकता के साथ, इन मंदिरों को बिल्कुल सीधी रेखा पर कैसा बनाया..?

एक और प्रश्न – पांच मंदिरों में से मात्र तीन ही मंदिर सीधी रेखा पर क्यों? बाकी दो मंदिर क्यों नहीं?

काफी खोजबीन के बाद इसका उत्तर मिला. लगभग तीन हजार वर्ष पहले हमारी मान्यताओं में ‘तीन तत्वों’ की, अर्थात ‘त्री-भूत’ की संकल्पना थी. वायु – पृथ्वी – आकाश. बाद में अग्नि और जल, यह दो तत्व मिलकर ‘पंचमहाभूतों’ की संकल्पना विकसित हुई. आंध्र प्रदेश (कालहस्ती मंदिर) और तमिलनाडु में निर्मित यह पांचों शिव मंदिर एवं जमीन पर उनकी संरचना अक्षरशः चमत्कृत करने वाली है.

हमारे पुरखों ने इन पांच मंदिरों के माध्यम से शिव तत्व का एक विशाल पट हमारे सामने रखा है. किन्तु हम अभागे, इस भाषा को नहीं समझ पा रहे हैं. इन मंदिरों की रचना के माध्यम से निर्मित होने वाली कूट भाषा यदि हम आधुनिक काल में समझ सके तो प्राचीन काल के अनेक रहस्य हमारे समक्ष खुल सकेंगे..!

#महाशिवरात्रि #शंकर #भोलेनाथ

 


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