राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 98 वें स्थापना दिवस पर विशेष
तमाम झंझावातों का सामना करते हुए संघ ने बनाई अपनी राह
कृष्णमोहन झा
रांची, 02 अक्टूबर :राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आगामी विजयादशमी पर्व की शुभ तिथि को अपनी स्थापना के 97 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है। 1925 में इसी शुभ तिथि को मां भारती के महान सपूत डा केशव बलीराम हेडगेवार ने मुट्ठी भर स्वयंसेवकों के साथ मिलकर नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में जो नन्हा पौधा रोपा था। वह इन 97 वर्षों में विशाल वट वृक्ष का रूप ले चुका है जिसने विश्व के अनेक देशों को अपने दायरे में समेट लिया है। इन 97 वर्षों में संघ ने अपनी प्रगति यात्रा के मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं को पार करते हुए विश्व के सबसे बड़े स्वयं सेवी संगठन के रूप में अपनी जो पहचान बनाई है उसने समाज के लगभग हर वर्ग के लोगों के मन में यह जिज्ञासा जागृत कर दी है कि आखिर संघ बिना किसी बाहरी सहायता के इस गौरव शाली मुकाम तक पहुंचने में कामयाब कैसे हुआ।
गौरतलब है कि वर्तमान में संघ की शाखाओं की संख्या 58000 से अधिक है। इस संख्या को संघ ने अपने शताब्दी वर्ष तक एक लाख तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है और इसमें किंचित मात्र भी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि संघ अपने इस लक्ष्य को निर्धारित समय सीमा के भीतर पूर्ण कर लेगा । संघ अपने पचास से अधिक आनुषंगिक संगठनों के माध्यम से लगभग दो लाख संख्या सेवा प्रकल्प भी संचालित कर रहा है।इन सेवा प्रकल्पों की समाजसेवी गतिविधियों से समाज के विभिन्न वर्गों के लाखों जरूरत मंद लोग लाभान्वित हो रहे हैं।
संघ की शाखाओं में राष्ट्रभक्ति और देशप्रेम का पाठ पढ़ाया जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्रनिर्माण तक, जीवन के हर क्षेत्र में संघ की मौजूदगी का अहसास किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि संघ कभी अपने कार्यों का प्रचार नहीं करता। उसने कभी यश अर्जन की भावना से कोई काम नहीं किया। उसे कभी सराहना की चाहत नहीं रही । संघ ने हमेशा समाज के हर वर्ग के लोगों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे । कोई भी संघ में जब चाहे आ सकता है और अपनी इच्छा से संघ से बाहर जा सकता है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हमेशा ही अपनी इस बात को रेखांकित किया है कि संघ को समझने के लिए संघ के अंदर आना होगा। संघ का हिस्सा बनकर ही संघ को समझा जा सकता है और अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया जा सकता है। जब संघ ने अपनी स्थापना के 90 वर्ष पूर्ण किए तब पांचजन्य और आब्जर्वर पत्रिकाओं द्वारा आयोजित भव्य कार्यक्रम में संघ प्रमुख ने कहा था कि ' संघ के स्वयंसेवकों को भी संघ को समझने के लिए प्रयास करना पड़ता है। मैं भी संघ का स्वयंसेवक हूं, मुझे भी संघ को समझने का प्रयास करना पड़ता है परंतु इसके साथ ही संघ प्रमुख के अनुसार संघ को जानने की जिज्ञासा मन में लेकर संघ का अनुभव जो लोग लेते हैं उनके लिए संघ को जानना कठिन नहीं है। पहले से ही कुछ पूर्वाग्रह बना कर, मन में कुछ उद्देश्य लेकर संघ को समझेंगे तो वह समझ में आने वाला नहीं है ।'
जब संघ प्रमुख मोहन भागवत यह कहते हैं कि उन्हें भी संघ को समझने का प्रयास करना पड़ता है तो यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि संघ में ऐसा क्या है कि संघ का हिस्सा बने बिना उसे अच्छी तरह समझ लेने का दावा नहीं किया जा सकता । जो लोग इस तरह की शंका मन में रखकर संघ के बारे में कोई धारणा बना लेते हैं वे अगर संघ का हिस्सा बन कर संघ को समझने का प्रयास करेंगे तो उन्हें भी यह अनुभूति होगी कि संघ के बारे में पढ़ कर या सुनकर कोई धारणा नहीं बनाई जाना चाहिए। संघ प्रमुख मोहन भागवत तो यह भी कहते हैं कि संघ में आकर आपकी जब तक मर्जी है तब तक रहो, जब मर्जी आए तो बाहर तो बाहर जाने पर कोई पाबंदी नहीं है। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि संघ का हिस्सा बनकर उसकी अनुभूति कर लेने के बाद संघ से बाहर जाने का विचार मन में नहीं आ सकता ।
संघ की सेवा भावना, राष्ट्र भक्ति , राष्ट्र निर्माण में उसकी महती भूमिका किसी को भी मंत्र मुग्ध कर सकती है। हमेशा ही संघ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करने वाले संघ - विरोधियों को वे यह संदेश देना चाहते हैं कि संघ की आलोचना करने से पहले संघ की अनुभूति करने की आवश्यकता है। जिसने एक बार संघ की अनुभूति कर ली वह फिर संघ से दूर नहीं जाना चाहता। वह हमेशा के लिए संघ का होकर रह जाता है। संघ यह नहीं कहता कि दूर से संघ के कार्यक्रमों को देख कर आप उसकी उसकी वाहवाही करो। संघ में आकर जब आप उसकी अनुभूति करेंगे तो आपको यह समझ आ जाएगा कि संघ जिन मूल्यों के प्रति समर्पित है वे शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण के लिए अपरिहार्य हैं। मोहन भागवत ने अनेक अवसरों पर इस बात को भी रेखांकित किया है कि संघ अपने काम से काम रखता है, किसी विवाद का हिस्सा बनने में उसकी रुचि कभी नहीं रही। संघ की नीति विरोध को यथासंभव टालने की रही है। जब तब की जाने वाली आलोचनाएं संघ को कभी उसके मार्ग से विचलित नहीं कर सकीं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि संघ ने अगर आलोचनाओं का जवाब देने में अपनी शक्ति जाया की होती तो आज उसके नाम पर विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन होने का रिकार्ड दर्ज नहीं होता।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार कहा था कि ' संघ पर प्रथम प्रतिबंध तक के और बाद के काल खंड में संघ के बारे में एक विषाक्त वातावरण भी बना परंतु बाद में संघ को एक सम्मानित संगठन के रूप में मान्यता मिली और संघ के स्वयंसेवकों के परिश्रम के फलस्वरूप उन्हें समाज जीवन के अंगों के रूप में पहिचान मिलने लगी । ' इसमें दो राय नहीं हो सकती कि आज तो संघ की उपस्थिति राष्ट्र निर्माण से जुड़े हर क्षेत्र में परिलक्षित की जा सकती है। शिक्षा, श्रम रोजगार, स्वास्थ्य, अध्यात्म, स्त्री विमर्श, आदि कोई भी क्षेत्र में संघ के योगदान को नजरंदाज नहीं किया जा सकता । इसी के साथ संघ के सेवा प्रकल्पों की संख्या में वृद्धि का सिलसिला इस बात का प्रमाण है कि संघ की सेवा साधना में अल्प विराम की भी कोई गुंजाइश नहीं है।
कोरोना काल में संघ पीड़ित मानवता की सेवा में संघ के स्वयंसेवकों ने दिन-रात एक कर दिए और जो संस्थाएं और संगठन कोरोना पीड़ितों की सेवा में जुटे हुए थे उनके साथ भी कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग किया। कोरोना टीकाकरण अभियान को सफल बनाने के लिए भी संघ के स्वयंसेवकों का योगदान सराहनीय था । देश के किसी भी भाग में प्राकृतिक आपदा अथवा दुर्घटना में प्रभावित लोगों को राहत पहुंचाने के लिए संघ के स्वयंसेवकों का समर्पित सेवा भाव दूसरों के लिए प्रेरणा का विषय बनता रहा है ।
मोहन भागवत के अनुसार संघ का काम स्वयंसेवक में आवश्यक सदगुण भरकर व्यक्ति निर्माण करना है। किसी के बुरे की कामना संघ कभी नहीं करता। संघ जिस हिंदुत्व की बात करता है उसके मूल में वसुधैव कुटुंबकम् की भावना है। विविधता में एकता का के राष्ट्र की एकता अखंडता और सुरक्षा से जुड़े हर अभियान में संघ की मौजूदगी स्पष्ट देखी जा सकती है । संघ अखंड भारत का स्वप्न साकार करने के लिए कृत-संकल्प है।
अक्सर यह कहा जाता है कि संघ के अंदर आकर ही संघ को समझा जा सकता है परंतु संघ में आकर व्यक्ति को यह आभास होता है कि संघ की कार्यप्रणाली खुली किताब की तरह है जिसमें गोपनीयता के लिए कोई स्थान नहीं है। मोहन भागवत कहते हैं कि संघ में प्रत्येक स्वयंसेवक प्रश्न पूछने के लिए स्वतंत्र है। किसी स्वयंसेवक पर कोई पाबंदी नहीं है। संघ ने अपने स्वयंसेवकों को संस्कार और विवेक दिया है । संघ के स्वयंसेवक, शारीरिक बौद्धिक और मानसिक योग्यता अर्जित कर लेने के पश्चात अपनी रुचि के कार्यक्षेत्र में अपना योगदान कर सकते हैं । संघ प्रमुख के अनुसार संघ उनसे केवल यह अपेक्षा रखता है कि वे जिस क्षेत्र से जुड़ें वहां संपूर्ण समाज को अपना मानकर, अनुशासन के दायरे में रहते हुए, राष्ट्र हित की बुद्धि से काम करते रहें। कुल मिलाकर संघ की पहिचान संस्कारवान स्वयंसेवकों से होती है । संघ में अनुशासन का जो महत्व प्रदान किया गया है उसकी सराहना पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी की थी । संघ में जातिभेद के लिए कोई स्थान नहीं है यह देख कर महात्मा गांधी भी प्रभावित हुए थे।