समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की ज्यादा चिंता करते थे : पंडित दीनदयाल उपाध्याय
श्री धर्मपाल सिंह प्रदेश महामंत्री (संगठन) भाजपा, झारखंड
रांची, 10 फरवरी : एक आम हिंदुस्तानी जिसने धोती-कुर्ता व साधारण सी चप्पल पहन रखी है, कंधे पर झोले में कुछ किताबें हैं, बगल में छोटा सा बिस्तर , नाक पर चश्मा है। इस छवि में मैंने एक महामानव के दर्शन किये हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसा व्यक्तित्व थे जिन्होंने जीवन मे व्यक्तिगत शुचिता और गरिमा के उच्चतम आयाम स्थापित किए। आदर्श कर्म योगी, गंभीर दार्शनिक, समर्पित समाजशास्त्री, कुशल राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री,पत्रकार आदि आदि रूपों में उनको जाना जाता है । संसार के विविध देश जहाँ समाजवादी एवम पूंजीवादी विचारधाराओं को अपना रहे थे वहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत करते हैं जिसके विकास का केंद्र "मानव" है। दर्शन शास्त्र में क्षेत्र में उनकी सबसे बड़ी विचारधारा थी एकात्म मानववाद ( integral humanism)।
उपाध्याय जी के अनुसार, समाजवादी एवम पूंजीवादी विचार धाराये केवल मानव के शरीर व मन की आवश्यकताओं पर विचार करती हैं। इसलिए वे भौतिक वादी उद्धेश्य पर आधरित है। जबकि मनुष्य के सम्पूर्ण विकास के लिये आध्यात्मिक विकास भी उतना ही आवश्यक है। एकात्म मानववाद एक ऐसी विचारधारा है जिसके केंद्र में व्यक्ति, फिर व्यक्ति से जुड़ा परिवार फिर परिवार से जुड़ा समाज, राष्ट्र, विश्व फिर अनंत ब्रह्माण्ड समाविष्ट है। सभी एक दूसरे से जुड़कर अपना अस्तित्व कायम रखते हैं। इस दर्शन में समाज केंद्रित मानव व्यवहार और उससें संबद्ध आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवहार की परिकल्पना प्रस्तुत की गई थी। उन्होंने कहा कि मन, आत्मा, बुद्धि, शरीर का समुच्चय ही मानव है। तथा चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से पूर्ण मानव ही एकात्म मानव दर्शन का केंद्र बिंदु है । चार पुरुषार्थ की लालसा मनुष्यों में जन्मजात होती है और समग्र रूप में इनकी संतुष्टि भारतीय संस्कृति का सार है। आज के दौर में एकात्म मानववाद की प्रासंगिकता बनी हुई है क्योंकि यह एकीकृत एवम संधारणीय है।
इसमे व्यक्ति एवम समाज की आवश्यकता को संतुलित करते हुए प्रत्येक मानव को गरिमामयी जीवन सुनिश्चित करने की बात रखी गयी। इस दर्शन में न केवल सामाजिक अपितु राजनीतिक, अर्थव्यवस्था, आध्यात्मिक, उद्योग, शिक्षा व लोकनीति जैसे पहलूओं पर व्यापक और व्यवहारिक नीति निर्देश शामिल थे।दीनदयाल जी ने कहा कि हमें अपनी राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का भारतीयकरण करना चाहिए। भारतीयकरण का आधार इन दो शब्दों में है स्वदेशी एवम विकेन्द्रीकरण तथा इसकी प्रकिया है स्वदेशी को युगानुकूल तथा विदेशी को स्वदेशानुकूल बनाकर ग्रहण करना चाहिए । पश्चिमी देशों ने भारत की दशा एवं दिशा को काफी प्रभावित किया है। यह प्रभाव आजादी से पहले एवं बाद में भी बना रहा। इसके चलते भारतीयता पीछे छूटती गई। भारतीय मानसिकता को भारतीय संदर्भ में देखने व विकसित करने के लिए प्रयास होने चाहिए। वास्तव में इस वक्त भारतीय मानसिकता का भारतीयकरण बड़ी चुनौती है। अवश्य ही भारतीयकरण के प्रयास हर स्तर पर होने चाहिए।
वर्तमान प्रधानमंत्री जी की आत्मनिर्भर भारत, वोकल फ़ॉर लोकल, मेड इन इंडिया जैसी नीतियों तथा योजनाओं का इसी ओर प्रयास है। अंत्योदय- ब्रिटिश राज काल भारत के लिए भारत के लिए मुश्किलों से भरा हुआ रहा। इस काल मे अनेक महापुरुषों ने समाज के मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
महात्मा गांधी ने देश के पिछड़े व निर्धन वर्ग के उत्थान पर अपना ध्यान केंद्रित किया । उनके आचार विचार की झलक दीनदयाल जी मे देखने को मिलती है।
गाँधी जी ने जिसे सर्वोदय कहा था उसे दीनदयाल जी ने "अंत्योदय" कहकर पुकारा और इस विचार के प्रणेता बने।
दीनदयाल जी का अंत्योदय से अभिप्राय था कि समाज की पंक्ति में सबसे अंत मे खड़े व्यक्ति से आर्थिक विकास के प्रयास शुरू होने चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता, रुचि एवम दक्षता के अनुरूप काम मिले जिससे उसकी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति सहज हो सके।दीन दयाल जी चाहते थे कि देश मे न अर्थ का अभाव रहे न ही अर्थ का प्रभाव रहे। उनका मानना था कि अर्थ का अभाव जितना हानिकारक होता है, उतना ही हानिकारक अर्थ का प्रभाव होता है।दोनों स्थितियां ही समाज तथा देश के लिए घातक है।यह दर्शन समाज के अंतिम व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार तथा मुख्य धारा में पहुँचाने वाला था।दरिद्र नारायण से अंत्योदय तक का यह सफर भारतीय आध्यात्मिक सोच का सफर है, जो भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र सदा से रहा है सबका साथ सबका विकास की अवधारणा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा पर आधारित है जिसको आगे बढ़ाते हुए समाज के गरीब व पिछड़े लोगों के लिए भाजपा सरकार में कई योजनाएं लागू की गई ।प्रधानमंत्री जी ने मेक इन इंडिया प्रोग्राम को दीन दयाल जी को समर्पित किया।आर्थिक नीति अर्थशास्त्र के बारे में दीनदयाल जी का मानना था कि उद्योग की छोटी छोटी इकाइयाँ होनी चाहिए, जिससे उत्पादन ज्यादा हो। बड़े उद्योगों की स्थापना पूंजीवादी व्यवस्था का आधार है । उन्होंने आधुनिक विज्ञान तकनीक का स्वागत किया किन्तु भारत की प्रगति के लिए छोटे उद्योग-धंधों को हितकर बताया । वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा कुटीर उद्योग, सूक्ष्म-लघु और मध्यम उद्यम आदि को प्रोत्साहन उन्ही विचारों का रेखाचित्रण है। नेहरू के प्लानिंग कमीशन के वो सख्त खिलाफ थे ।नरेंद्र मोदी ने पीएम बनने के बाद तत्परता से इसको खत्म किया। स्वतंत्रता के बाद देश की बौद्धिक चेतना को जागृत करने और राष्ट्र के शाश्वत विचार, सांस्कृतिक मूल्यों को रेखांकित करने के उद्देश्य से दीनदयाल जी ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जिनमे प्रमुख है मासिक राष्ट्रधर्म,साप्ताहिक पाञ्चजन्य तथा दैनिक स्वदेश।
राष्ट्र एवम समाज सेवा, दीन दयाल उपाध्याय जी ने आरएसएस के माध्यम से समाज सेवा को अपना लक्ष्य बनाया। वह भाऊ राव देवरस तथा नानाजी देशमुख से बहुत प्रभावित थे। सन 1951 में जन संघ की स्थापना के बाद उनका जन संघ को भारतीय राजनीति में स्थापित करने में उनका बड़ा योगदान था ।1952 में उन्हें जनसंघ का महा मंत्री नियुक्ति किया गया। 1952-1967 तक वह लगातार जनसंघ के लिए नीति निर्देशक एवम पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाते रहे।
उनके नेतृत्व में देश के राजनीतिक पटल पर जनसंघ एक मजबूत विकल्प के रूप में उभरा ।
दीन दयाल उपाध्याय के बारे में कहा जाता है कि वह कार्यकर्ताओं को सादा जीवन और उच्च विचार के लिए प्रेरित करते थे. खुद को लेकर अक्सर कहते थे कि दो धोती, दो कुरते और दो वक्त का भोजन ही मेरी संपूर्ण आवश्यकता है । ऐसी विलक्षण सादगी विरले ही देखने को मिलती है ।अपने एक भाषण में उन्होंने कहा कि यदि मैं भी किसी बड़े नेता की तरह निजी सचिव और अंगरक्षक रखूं तो क्यां मैं वास्तव में गरीब जनता का प्रतिनिधि कहलाने का अधिकारी होऊंगा? जब तक ये सारी सुविधाएं प्रदेश स्तर के कार्यकर्ताओं को उपलब्ध नहीं हो जातीं, मेरा मन अपने लिए उन सुविधाओं को स्वीकार नहीं करेगा। पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच अनुशासन को लेकर वह अत्यंत सचेत रहते थे।
अनुशासन, एकता और पार्टी के साथ साथ समाज तथा राष्ट्र के हित में निजी इच्छाओं को महत्त्व न देने की प्रवृत्ति जनसंघ की विशेषता रही थी। ये सारे गुण जनसंघ को दीन दयाल जी से मिले थे । जिनको बाद में भारतीय जनता पार्टी आगे लेकर गयी। वे हमेशा से भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन एवम नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं । उनके शब्दों में कहें तो "हमने किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है। हिंद महासागर और हिमालय से परिवेष्ठित भारत खंड में जब तक हम एकरसता, कर्मठता, समानता, संपन्नता, ज्ञानवत्ता, सुख और शक्ति की संपत्-जाह्नवी (सात गंगा) का पुण्य प्रभाव नहीं ला पाते, तब तक हमारा भगीरथ तप पूरा नहीं होगा"। पण्डित जी एक कुशल संगठनकर्ता थे जिन्होंने न केवल सामाजिक , राजनीतिक, आर्थिक मामलो पर अपने विचार रखे बल्कि देश के विकास के लिए भारतीय विचारों, दर्शन एवं संस्कृति को सबसे ऊपर रखा। उनका पूरा जीवन सामाजिक समरसता का अनुपम उदाहरण है।
भौतिक आडम्बरों से दूर साधारण मानव असाधारण जीवन का अद्वितीय उदाहरण हैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी। उनको गुजरे हुए पांच दशक हो गए हैं लेकिन उनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है क्योंकि उनके विचार पुस्तकीय ज्ञान से परे अति व्यावहारिक थे। चाहे वो पत्रकार के तौर पर भाषा का संयम व संतुलन हो या फिर उनके राजनीति का अनोखा अंदाज। जहां उन्होंने किताब 'द टू प्लांस' के जरिये विदेशों से आयातित अर्थनीति का विरोध किया वही उन्होंने देश के लिए एक अनुकूल आर्थिक व्यवस्था का खाका भी सामने रखा । दीन दयाल उपाध्याय जी ने हर विषय पर अपने ऐसे विचारों को सामने रखा जो आज भी अहमियत रखते हैं दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसे युगद्रष्टा थे जिनके बोए गए विचारों और सिद्धांतों के बीज ने देश को एक वैकल्पिक विचारधारा देने का काम किया । उनकी विचारधारा सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए थी। राष्ट्र उनके प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगा ।